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चौतीस स्थान दर्शन
जीवभाव तथा कमबंध इनका तथा पूर्वबद्ध कर्मा का यया सुनिश्चित सहायता पहुंचनी है 1 अथ निर्माताओं ने समय उदय और मीनभानों का परस्पर निमित्त नमित्तिक स्वयं साविशय प्रयत्न करणे अध्यन करन वालों को सुचवस्थित सम्पन्य धिारित हो जाने पर संसार विषय सुलभ किया है । इस ग्रन्थ के निर्मागा में प० पू० मम्बन्धी सारी विनितानों के विषय में जितनी भी १०८ मुनि श्री प्राधिनागरजी महाराज (शेडवाल नथा Hum टॉसी प्रकाशीता मित जोगा। सम्माननीय पडित उसकतरापनी रोना (हरयाना। इन वाता हत्ता के रूप में किसी व्यक्ति विशेष के मानने की दोनों स्वाध्याय मग्न प्रशस्त अध्यवसायियों का वर्षों का प्रविसम्मा ही नहीं रहेगी। निज के पूण पापों का सर्जन परिथम निहित है बिज पाठकादि इस परिश्रमशीलता का में और भुक्तान में यह प्रागी जैने स्वयं जिम्मेवार होता याच मूल्यांकन कर सकते है। मैं भी इन अथकपरिहै उगी प्रकार कर्मनाश करके अनन् अबिनाशी गर्ष यमों की हृदय में सराहना करता हूं पूर्व में मुनी साधु सम्पन्न परम थष्ठ अवस्था के प्राप्त करने में भी यह स्वयं गगा यौर प्रशस्न अध्यवसाय मग्न ज्ञानी लोग इस प्रकार समर्थ होता है वह मिदान्त ग्रन्थ का धार मनन मोर का प्रशस्त अव्यवसाम महीनों करते थे। उससे एक बात अध्ययन करने से ग्राम ही आप मुस्पष्ट होता जाता है तो निश्चित है कि राग द्वेष के लिये निमितभ्रत अन्याय और स्वावलंबन पूर्वक सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की शपता सांसारिक संकल्प विकल्पों से हैं लोग अपनी प्रास्मा को दृष्टिपथ में आ जाता है ।
ठीक तरह म बना लेते थे दोनों महान पत्रों का मैं
हृदय से ग्राभारी हं उन्होंने प्रकारग ही बीतराग प्रेम इन सात तावों में में ग्राचा बन्ध तथा संवर-निर्जरा इस व्यक्ति पर अधिक मात्रा में किया है और जान का मनीषियों ने भी सूक्ष्म मूहमसभ विचार करने की पद्धति विशेष न होने ये भी प्रस्तावना के रूप में लिखने के निश्चित रूप से निर्धारित की है यह भी एक महत्वपूर्ण लिये नाव्य किया। इसमें जो भी भुने हों यह मेरी हैं और पद्धति है। चौतीस स्थान ये मुख्य रूप से सम्मुख रस्त्र कर सच्चाई हो वह पूण्य जिन वाली माता को प्रारमा है। कर्मवर्गगानों के विषय में कार्यकारग्गाद भायों का पूरा उसे हमारी शतशः वंदना हो। ख्याल रखकर जो विचार प्रपंच हो सकता है वही इस अन्य का महत्वपुर्ण विषय विशेष है। प्राचीन पार्य पाशा एवं विश्वास करता है कि स्वाध्याय मी प्राधों का उस प्राधार है। प्रानत गाथा, संस्कृत लोक जनता इस रिश्रम से प्रवश्य ही उचित लाभ उठायेगी। भाष्य महाभाष्य प्रादिप से भी इस विषय का किसी साथ ही साथ प्रभु चरणों में यह हार्दिक प्रार्थना करता मात्रा में वर्णन है फिर भी नक्शों के द्वारा आलेखों के हूं कि जिनवाणी माता की मवानों के लिये ग्रंथ द्वारा इस विषय का स्पष्ट बोध सहज में होने से दर्पण निर्मातामों को भविष्य में भी सदीर्घ जीवनी पौर स्वाध्याय में प्रनिबिन की तरह विषयावबोध स्पष्ट-मूस्पष्ट होने में प्रध्ववसाय की इसी तरह शान्ति विशेष का लाभ हो। कारेजा
विनीत १६११६
डा. हेमचन्द वैद्य
न्यायतीर्थ माणिकचन्द नबरे