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प्राक्कथन
'चौतीस पान दर्शन' यह अनूठा ग्रन्थराज प्राज श्रादि संसार सम्बन्धी जितनी भी प्रवस्थायें हैं या हो प्रकाशित हो रहा है जिसकी मृझे अपाधि प्रसन्नता हो सकती हैं उनका नकंगध शुद्धशास्त्र सिद्ध गरिणत प्रस्तुत नही है। ग्रन्थका विषय जैनदर्शनांतर्गत कर्मतस्वज्ञान से करने का उत्तरदायित्व स्वभावतः जैनदर्शन के ऊपर सम्बद्ध है और कर्मतने ज्ञान यह करगानुयोग से सम्बद्ध है __ आता है। मज पाठक इससे परिचित ही हैं कि संपूर्ण जिनवाणी चार विभागों में विभाजित है : १. प्रथमानुयोग . द्रव्यानुयोग
वह केवल 'प्रहद' कहकर या 'प्रगम्य' कहकर अपने ३. चरणानुयोग और ४. कररणानुयोग । चारों अनुयोगों
उत्तरदायित्व को समाप्त करना भी नहीं पाहता। की प्राचीन ग्रन्थराशि प्रस्यन्त समृद्ध है । करगानयोग यह
संसार सम्बन्धी जितनी विचिवतायें जोव सम्बद्ध हैं, यारों एक निरतिवार निर्दोष निर्विकल्प परिणत प्रस्तुत करता है।
गतियाँ मनुष्य-देव नारक या नियंच उसमें प्राप्त होने चतुर्गति भ्रमण के कारणभूत जीवों के परिमाणों की
वाले नाना जाति के देह उनके वर्ण रस गधादिया विचित्रता यह भी एक ऐसा महत्वपूर्ण विषय है जिस पर
प्राकाराकारादि तथा कम या अधिक इन्द्रियों को सुडौल मनीषियों ने काफी विचार किया है जैनदर्शन आत्मवादी
या बेडौल रचनायें, प्रात्म प्रदेशों का शरीरापार से होने है अनात्मवादी नहीं है नास्तिक नहीं है पूर्ण आस्तिक
वाला कंपन स्त्री पुरुष या नपुसके के आकार आदि को है । यह वस्तुस्थिति होते हुये भी जीन अपने सुख दुःख के लिए ईश्वरवादियों की तरह अनदा और किसी सर्व
व्यवस्था का जैसा उसके पास उत्तर है उसी प्रकार जीवों शक्तिमान स्वतन्त्र मित्र व्यक्ति या शक्ति को स्वीकार
के परिणामों की जो अन्तरंग सम्बन्धी जितनी विचित्रतायें नहीं करता । उसका तो वह घोषवाक्य रहा है
हैं कोई क्रोधी कोई क्षमाशील कोई गर्व-छल और लोभ
से अभिभूत है तो दूसरा तरसम रूप से मदकषायो या स्वयं कृतं कर्म यतारमना पूरा फलं तदीय समते विकारहीन पाया जाता है; कोई स्वभावत: सुबुद्ध तो शुभाशुभम् । परेण वसं यदि सभ्यते स्फुटं स्वय कृतं कर्म दूसरा कोरा निर्बुद्ध, कोई संयमशील तो कोई असंयम निरर्थक रवा । जीव चाहे किसी गति का हो उसे प्राप्त के कीचड़ में फंसा हुआ, कोई श्रद्धावान् दृष्टि सम्पन्न होने वाले शुभाशुभ फल यह सब उसी के भली बुरी तो दूसरा श्रद्धाविहीन दृष्टि शून्य, किसी को संकल्प करनी के-करतूत के फल हैं 'जो बस करे सो तस फल विकल्पों का सुसंस्कृत सामग्य होता है, तो किसी में उसकी पाय' 'जंसी रनी सी भरनी' आदि उक्तियों के मूल में किचिन्मात्रा भी नहीं पायी जाती। इन सारी विचित्रजो तस्व है, सिद्धांत है. वही जैनदर्शन का हाई है, 'श्वरः तामों का या सम्भाब्य सारी विचित्रतामों का जनदर्शन प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।' आदि मान्यताओं के पास तर्क-शुद्ध विचार है। सक्षप में यह कह सकते हैं से वह संकड़ों कोस दूर है दूसरा यदि सुख दुःखों का विश्व का बाहरी भूप और अन्तरंग स्वरूप का ठीक दाता है और यह जीव उसको भोक्ता होगा तो इसकेद्वारा ठीक हिसाब बैठालने में ईश्वर या ईश्वरसम दूसरी स्व. होने वाली पाप पुण्य क्रियायें या धर्मानुष्ठान इन सब ही तन्त्र शक्ति के मान्यता के बिना भी जैनदर्शन समर्थ का कोई अर्थ या प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इसलिये लोक हा है वह अपने समृद्ध कर्मतत्वज्ञान के बल पर ही हो परलोक सुख दुःख, रोग तीरोग, इटानिष्ट संयोग वियोग पाया है। उसके परिज्ञान के लिए जैनदर्शन समान बस्नु