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धर्म क्या है ?
१ धर्म वह है जो इस भवसागर में भटकले प्राणी को आत्मा से परमात्मा बनाकर
शाश्वत आनंद प्रदान करे।
२. "चारित्तं खलु धम्मो”- अर्थात् चारित्र ही धर्म है। चारित्र का अभिप्राय
सम्यकदर्शन व सम्यग्ज्ञान से विभूषित सम्यक्. चारित्र से है। इसके दो भेद हैं : व्यवहार चारित्र - गृहस्थ व मुनि धर्म तथा निश्चय चारित्र। व्यवहार (मुनि) चारित्र निश्चय चारित्र का कारण और निश्चय चारित्र ( अथवा निश्चय रत्नत्रय) साक्षात मोक्ष का कारण है।
३. "वस्तु स्वभावो धम्मो - अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। आत्मा का क्या
स्वभाव है ? मात्र अपने स्वरूप में परिणमन करना, न कि कर्म के वशीभूत अथवा राग, द्वेष, मोह में विभावरूप परिणमन करना। रत्नत्रय के आश्रय से इन सब विभावरूपी परिणतियों से छुटकारा मिलता है और तब आत्मा मात्र ज्ञाता, दृष्टा बनकर निज आत्मा में ही नग्न होकर मोक्ष प्राप्ति कर परमात्मा बन जाता
४. "अहिंसा परमो धर्म" - अर्थात् अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा से यहाँ तात्पर्य
मन, वचन, काय/कृत, कारित, अनुमोदना/समरम्भ, समारम्भ, आरम्भ / क्रोध, मान, माया. लोभ के द्वारा होने वाली भाव व द्रव्य हिंसा से अपने आत्मा की हिंसा तथा समस्त षट काय के जीवों की हिंसा न होने देना से है।
५. “दया मूलस्य धर्म' – अर्थात् धर्म का मूल दया है। यह परिभाषा उक्त वर्णित
(४) के अन्तर्गत ही आ जाती है।
६. उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य
रूपी दशलक्षण धर्म है।
७. "आप्त" (जो परम वीतरागी, पूर्ण ज्ञानी एवम हितोपदेशी हो) द्वारा कथित वचन
हैं, उन पर आचरण करना ही धर्म का पालन करना है। इसका पालन करते हुए ज्ञानी जन तटस्थ भाव से रहकर भेद विज्ञान के बल से आत्मा और