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और यदि f
+
=
+
अलोकाकाश के प्रदेश (त्रिकाल के समयों से अनन्तगुणे)
धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य के अगुरुलघुगुण के अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद
यह महाराशि केवलज्ञान- केवलदर्शन के अनन्तवें भाग है। केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद में से 9 को घटाकर, पुनः g को जोड़ देना ।
उक्त महाराशि g को केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों में से घटाकर पुनः मिलाने का अभिप्राय यह है कि केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण इस महाराशि से भी बहुत ही ज्यादा बड़ा है। इस महाराशि को किसी दूसरी राशि से गुणाकर करने पर भी केवलज्ञान के प्रमाण से बहुत कम रहती है। इसलिये केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण का महत्व दिखलाने के लिये उपर्युक्त विधान किया है ।
तब यदि g
तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त =
=
अनन्त का विषय केवलज्ञानी का विषय है ।
नोट- उपरोक्त वर्णन में असंख्यात ( a ) और अनन्त (A) का मान अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग हो सकता है। यह केवलज्ञान-गम्य है। इन संख्यायों का एकदम सटीक (exact) मान न तो शास्त्रजी में उपलब्ध है और न ही सम्भवतः किसी कागज पर लिखा जा सकता है, क्योंकि उस मान के अंक ( digit) भी असंख्यात / अनन्त होंगे ।
सन्दर्भ- (१) जैन सिद्धान्त दर्पण - श्री स्याद्वादवारिधि वादिगजकेसरीन्यायवाचस्पति स्व० पंडित गोपालदास जी वरैया, मोरेना (ग्वालियर) द्वारा विरचित (मुनि श्री अनन्तकीर्ति दि० जैन ग्रन्थमाला का सप्तम पुष्प) (प्रकाशित - जनवरी सन् १६२८ ) |
(२) त्रिलोकसार, श्री मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित टीकाकर्त्री आर्यिका श्री १०५ विशुद्धमती माताजी ।
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