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________________ (४) प्रमाद- अच्छे कार्यों में उत्साह के न होने को प्रमाद कहते हैं, इसके पन्द्रह भेद हैं। चार विकथा- स्त्रीकथा, राष्ट्रकथा, भोजन कथा, चोर कथा! चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ। पांच इन्द्रिय विषय, निद्रा और स्नेह। । (५) योग- मन, वचन और काय की क्रिया से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं। योग के मूल में तीन भेद हैं लेकिन प्रभेद करने पर पन्द्रह भेद हो जाते हैं- सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभवमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभववचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाय योग, चैक्रियककाययोग, वैक्रियकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग। इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, योग, कषाय और प्रमाद अवस्था दुःख देने वाली हैं। ये सब चेतन के विभाव परिणाम हैं। (ख) द्रव्यास्रव के भेद ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुदगल कर्म आता है वह द्रव्यासव अनेक भेद वाला जानना चाहिए। भावार्थ- भावास्रव के फलस्वरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप होने योग्य जो कार्मणवर्गणा के पुदगल स्कन्ध आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही होने के लिए आते हैं, उन आते हुए कर्मपुद्गल परमाणुओं को द्रव्यास्रव कहते हैं। भावानवों के अनुसार ही जो उस समय समीपवर्ती पुद्गल परमाणु आते हैं उसे ही द्रव्यास्रव कहते हैं। द्रव्यास्रव के मूल में आठ भेद होते हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। लेकिन इन आठों कर्मों के प्रभेद करने पर कुल एक सौ अड़तालीस उत्तर भेद होते हैं- ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो. मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार, नाम कर्म के तिरानवे, गोत्र कर्म के दो तथा अन्तरायकर्म के पांच भेद होते हैं। (६) जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध ___ यह जीव औदारिक आदि शरीर नाम कर्म के उदय से योगसहित होकर ज्ञानवरणादि आठ कर्मरूप होने वाली कर्म वर्गणाओं को तथा औदारिक आदि चार शरीर (औदारिक, वैक्रेयिक, आहारक, तैजस) रूप होने वाली नोकर्म वर्गणाओं को हर १.१२४
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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