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________________ नरक में दुःख के समस्त रूप दृष्टिगत होते हैं। कलह और अभाव की तो वहाँ चरम सीमा है। नारकी वहाँ आपस में खूब झगड़ते हैं, एक दूसरे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, असुर आदि देव उन्हें लड़ने के लिए खूब उकसाते हैं, प्यास तो इतनी लगती है कि समुद्र को ही पूरा पीने को जी चाहता है, पर एक बूंद भी जल पीने के लिये नहीं मिलता। अतृप्ति-चिर अतृप्ति ही नरक की देन है। (चित्र १.१७) नरक में भूख, वहां की आयु और मनुष्यगति-प्राप्ति तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख, कणा न लहाय ये दुःख बहु सागर लौं सहै, करम जोग नै नर गति लहै।।१२ ।। नरक में प्यासे को जब पानी नहीं मिलता, तो भूखे को भोजन कैसे मिलेगा ? भूख तो इतनी तीव्र होती है कि तीनों लोकों के अन्न से भी शायद वह न मिट पाये, पर खाने को एक दाना भी नहीं मिलता। नरक के कष्ट अपार हैं और वहां जीव की आयु भी बहुत लम्बी होती है; अतः अनेक काल तक जीव इस दुख सागर की भँवरों में तड़पता रहता है, फिर कहीं शुभ कर्मों के उदय का योग मिले तो उसे मनुष्य-गति प्राप्त होती है। (चित्र १.१८) __ मनुष्यगति में गर्भ कष्ट और प्रसव दुःख जननी-उदर बस्यो नव मास, अङ्गसकुचतँ पाई त्रास। निकसत जे दुःख पाये घोर, तिनको कहत न आवै ओर । १३ ।। मनुष्यगति में भी जीव को शांति नहीं मिलती। प्रारम्भ से ही वह कष्टों में आता है, कष्टों में पलता है और कष्टों में ही चला जाता हैं। इस गति का प्रारम्भ माँ के उदर से होता है, जहाँ जीव को नौ महीने संकुचित अवस्था में पड़ा रहना पड़ता है। पृथ्वी पर आते हुए उसे वर्णनातीत कष्टों का सामना करना पड़ता है, इस प्रकार मनुष्यगति का प्रारम्भ ही कष्टों से होता है। (चित्र १.१६) बाल्यावस्था, जवानी व बुढ़ापे के दुःख बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरूण समय तरूणी-रत रह्यौ। अर्धमृतक सम बूढ़ापनों, कैसे रूप लखै आपनो।।१४ ।। १.११५
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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