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तिर्यञ्च गति में अनेकानेक कष्ट हैं. सिंह जैसा सबल है तो हत्या का पाप उसके सिर पर है। बैल जैसा निर्बल है तो कष्ट ही कष्ट हैं, अत: कहीं वध है तो कहीं बन्धन । प्रत्येक परिस्थिति में कष्ट ही कष्ट है। कष्ट इतने हैं कि इनका वर्णन करते हुए जिहा थक जाती है। इन यातनाओं से त्रस जीव जब खोटे परिणामों सहित मरता है तो नरक में स्थान पाता है। (चित्र १.१४)
नरक की भूमि और नदी तहाँ भूमि परसत दुःख इसो, बीछू सहस डसै नहिं तिसो। तहाँ राध-शोणित- वाहिनी, कृमि-कुल-कलित देह-दाहिनी।।६।।
नरक के दुःख कल्पना से परे हैं। वहाँ चैन का नाम ही नहीं है। जमीन के सहज स्वाभाविक स्पर्श से ही अनेक बिच्छुओं के काटने की पीड़ा होने लगती है। पर जीव को रहने के लिये आधार तो चाहिए ही। थल को त्याग यदि वह जल में शान्ति पाना चाहे तो वहाँ जल के स्थान पर पीव और रक्त की नदी है, जो देखने में ही घृणास्पद नहीं है, वरन् शरीर को जलाने वाली भी है। जीव आधार के बिना रह नहीं सकता, पर वहाँ जिस आधार को भी वह ग्रहण करे, वही असह्य पीड़ादायक है। जब जल-थल का यह हाल है, तब वहाँ के कष्टों का तो पूछना ही क्या ? (चित्र १.१५)
नरक के सेमर वृक्ष, शीत और उष्ण सेमर तरु -युत दल-असिपत्र, असि ज्यों देह विदार तत्र। मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।।१०।।
नरक में प्रकृति असह्य पीड़ादायक है। असहनीय शीत है और गर्मी तो इतनी होती है कि लोहा तक गल जाता है, इस गर्मी की भीषणता से रक्षा पाने के लिये यदि नारकी पेड़ की छाया में बैठता है, तो सेमर पक्ष के पत्ते उसकी काया को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। शीतलता की आशा में उसे कृपाण की धार मिलती है, उसके कष्टों का अनुमान ही नहीं किया जा सकता। (चित्र १,१६)
नरक में आपसी कलह और तृषा का दुःख तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ा दुष्ट प्रचण्ड। सिन्धु. नीरतें प्यास न जाय, तो पण एक न बून्द लहाय ।।११।।