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________________ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के दुःख कबहूं पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी है कूर, निबल-पशू हति खाये भूर।।६ || तिर्यञ्च गति में भाग्योदय से यदि यह जीव पंचेन्द्रिय हो भी गया, तो उसे सुख कहाँ ? जब वह असैनी (असंज्ञी) था तब अज्ञान के कारण दुःख पाता रहा और जब सैनी (संज्ञी) भी हुआ, तब सिंह की तरह क्रूर प्रकृति का होने के कारण हिरण आदि निर्बल पशुओं का भक्षण करता रहा। अपनी प्रकृति को वश में न कर सकने से वह सैनी होकर भी पाप करता रहा, दुःख पाता रहा। इस प्रकार सैनी-असैनी दोनों ही अवस्थाओं में जीव सुखी नहीं रह पाता। (चित्र १.१२) तिर्यञ्चगति में निर्बलता का दुःख कबहूँ आप अयो बलहीन, सबलनिकरि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख प्यास, भार वहन हिम आतप त्रास ।।७।। जीव तिर्यञ्च गति में आकर अनेक प्रकार के दुःख उठाता है, किसी भी परिस्थिति में उसे सुख नहीं मिलता। जब वह सिंह की भाँति बलवान होता है, तब हिरण आदि निर्बल पशुओं का हनन करता है और जब वह स्वयं गाय-बैल की भाँति निर्बल हुआ, तो चीते आदि सबल पशुओं द्वारा मारा गया। यदि भाग्यवश इन दुःखों से छुटकारा पा जाता है, तब भी उसे राहत नहीं। कभी बैलगाड़ी में जोतने योग्य बनाने के लिये उसका छेदन-भेदन होता है, भूख प्यास की तृप्ति के लिये उसे मालिक पर निर्भर रहना पड़ता है, कभी उस पर शक्ति से भी अधिक बोझा लादा जाता है। उसे गर्मी, सर्दी के दिनों में तीव्र दुःख उठाने पड़ते हैं। इस प्रकार से जीव हमेशा दुःखी ही रहता है। (चित्र १.१३) तिर्यञ्च के अनेक दुःख बध-बन्धन आदिक दुःख घने, कोटि जीभतँ जात न भने। अति संक्लेश-भावतें मरयो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो।। ।। १.१११
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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