________________ Pancastikaya-samgraha सम्यक-आत्मसाधक की सर्वश्रेष्ठ साधना उपेक्षाभाव है। अज्ञान की निवृत्ति, हेय-उपादेय का विवेक तथा पर-भावों से उपेक्षाभाव बनाकर रखना; यही भूतार्थ प्रमाण का फल है। जैन सिद्धान्त-शास्त्रों एवं अध्यात्म-शास्त्रों का मूल उद्देश्य है कि प्राणीमात्र स्वानन्द का बोध कर आत्मानन्द के पुरुषार्थ में लीन हो जाये, अन्य कोई भौतिक उद्देश्य नहीं है। जैन दर्शन को 'आत्म-विकासवादी दर्शन' कहें तो कोई विकल्प नहीं है। 'आत्म-विकासवादी दर्शन' से सुन्दर कोई अन्य संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जैनागम चार भागों में विभक्त है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग। चारों ही अनुयोग वस्तु के वस्तुत्व का स्व-स्व शैली में कथन करते हैं। वस्तु-स्वभाव से भिन्न होकर आगम किसी भी अन्य की व्याख्या नहीं करता है। सम्प्रति अध्यात्म जगत में दिगम्बराचार्य भगवन् श्री कुन्दकुन्द देव अनुपम श्रुत-सृजक हैं, आपने चौरासी पाहुड (ग्रंथों) का सृजन कर वागीश्वरी के सम्यक्-कोष को वर्धमान किया है। उनके पाहड ग्रंथों में पंचास्तिकाय एक अनठा विश्वतत्त्व का उद्योतन करने वाला कालजयी ग्रंथ है, जिसमें सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय की विशद व्याख्या की है। सत्-असत्, विधि-निषेध, भाव-अभाव, अभाव-भाव, भावाभाव का व्याख्यान किया है। टीकाकर्ता भगवद् आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी एवं आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने 'पंचास्तिकाय' ग्रंथराज के गूढ-रहस्य को खोलकर जगति के जीवों पर महत् उपकार किया है। वीतरागी तीर्थंकर-भगवन्तों एवं आचार्यों की विशुद्ध-पवित्र देशना प्राणीमात्र के लिए कण्ठाहार बने तथा अहिन्दी-भाषी, संस्कृत-प्राकृतादि भारतीय भाषाओं से अनविज्ञ जनों के लिए भी विज्ञता का साधन बने, इस भावना से युक्त वागीश्वरी-चरण-आराधक, सरल-स्वभावी, गुरु-चरणानुरागी, विद्वान श्री विजय जैन (श्री वी. के. जैन) ने ग्रंथराज पंचास्तिकाय के प्रमेयों को उभय टीकाओं के सार का आश्रय लेकर प्राञ्जल-अंग्रेजी में अनुवाद कर जिनशासन अथवा नमोस्तुशासन का उद्योतन कर जिनमहिमा को सहस्रों वर्षों तक जीवित कर दिया है। श्री वी. के. जैन को यही मंगलाशीष है कि- आप आत्महित सहित आगमवाणी का प्रकाशन करते रहें। 'इत्यलं'। श्रमणाचार्य विशुद्धसागर मुनि 06 फरवरी, 2020 श्रावस्ती (उ.प्र.) प्रवास (मंगल विहार, सम्मेद शिखरजी) . . .. . . . . . . ... .. VIII