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________________ | है। अतएव जिन-धर्म का ही पालन करना चाहिये। , इस प्रकार मुनिराज ने कथा-प्रसंग से सेठ-पुत्रों को उनके पूर्व-भव के माता-पिता का वृत्तान्त कह सुनाया। वे मुनिवर को साष्टाङ्ग नमस्कार कर प्रसत्र चित्त लौट गये। वहाँ जिन-पूजनादि धार्मिक कृत्य करते 85 हुए समय व्यतीत करने लगे। अन्त में सम्यक्त्व पालन करते हुए संन्यासपूर्वक उनकी मृत्यु हुई। वे सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। आकाश में वायु के आधार पर उत्पन्न होनेवाले मेघ की भाँति वे स्वर्ग में उपपाद शैय्या से उत्पन्न हुए। इन्द्रधनुष एवं विद्युत समकक्ष सर्वाङ्ग सुन्दर वे सेठ-पुत्र पूर्व अवयव सहित वैक्रियिक शरीरवाले हो गये। उनकी पूजा करने एवं आरती उतारने के लिए देवाङ्गनायें आ पहुँचों। देवताओं ने दिव्य वस्त्राभरण पहिनने को दिये एवं विविध प्रकार से उनकी अभ्यर्थना को। सर्व-शुभ लक्षण सम्पन्न मणिभद्र एवं पूर्णभद्र (दोनों देव) दैवीय वस्त्राभूषणों से भूषित हो विमान पर मारूढ़ हो कर सौधर्म स्वर्ग में निवास करने लगे। सत्य ही है, पुण्य के प्रभाव से ही जीव को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वहाँ जिन चैत्यालयों की वन्दना तथा जिन धर्म की प्रभावना करनेवाला देवाङ्गनाओं का अत्यन्त प्रिय होता है। स्वर्ग के देव सदा सुख में निमग्न रहते हैं, सदा उनकी नवयौवनावस्था बनी रहती है। त्वचा सिकुड़ने, केश श्वेत होने तथा सप्त धातुओं से रहित उनका शरीर होता है। भोज्य-पदार्थ की इच्छा होने पर उनके कण्ठ से अमृत झरता है, जिससे उनकी तृप्ति हो जाती है। इस प्रकार पुण्योदय से स्वर्ग में सुखभोग करते हुए कितना समय व्यतीत हो जाता है, यह भान नहीं होता। पुण्यात्मा व्यक्ति पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में देव को अवस्था में रहता है अथवा ढाई द्वीप में राजादिक हो कर सम्यक्त्व सहित सुख-चैन से काल व्यतीत करता है। वह परम्परा के अनुसार मोक्ष का अधिकारी भी बन जाता है। पुण्यात्मा जोव के लिए तीनों लोक की सारी सुख-सामग्रियाँ उपलब्ध रहती हैं। वह उत्तम योनि प्राप्त कर कामदेव सदृश मनोज्ञ, विशाल राज्य का अधिपति, गुणज्ञ, ज्ञानी, प्रतापी, भाग्यवान, धैर्यशील तथा शूरवीर होता है / अतः सत्पुरुषों को चाहिए कि निरन्तर पुण्य का सञ्चय करें। अष्टम सर्ग 2 जिस कोशल देश का ऊपर वर्णन किया जा चुका है, देव-दानवों द्वारा सुरक्षित उस नगर में पद्मनाम || Jun Gun Aarti - -
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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