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________________ PP Ad Gunun MS 64 // रहे थे, उसी समय मुनिराज का ध्यान भङ्ग हुला। उन्होंने नेत्र खोल कर देखा कि द्विज-पुत्र कीलित अवस्था में काष्ठ की तरह खड़े हैं। मुनिराज को लेशमात्र भी रोष न हुआ कि ये उनका वध करने के लिए खड़े थे, वरन् उन्होंने करुण-भाव से कहा-'किस दयालु यक्षराज ने यह चमत्कार किया है ? वह अपने स्वरूप का प्रकाश करे एवं कृपापूर्वक द्विज-पुत्रों को मुक्त कर दे।' ___ सात्विकी मुनिराज के पुण्योदय से उनकी इच्छानुसार उसी समय यक्षराज हाथ में दण्ड लिए हुए प्रकट हुमा / उसने मुनि को प्रणाम कर कहा-'हे मुनिराज ! भाप किंचित् भी चिन्ता न करें, आप का कथन भी यथार्थ है। किन्तु मैं निष्प्रयोजन तो वध नहीं करता। कल रात्रि में जब ये दुष्ट ब्राह्मण माप की हत्या करने के उद्देश्य से खड्ग प्रहार करनेवाले थे, तब मेरा विचार हुआ कि मैं इन्हें प्राणदण्ड हूँ। किंके लोकापवाद के भय से मैं ने इनका प्राण न ले कर इन्हें कोल दिया, ताकि लोग इनकी दुष्टता प्रत्यक्ष देख लें। हे नाथ! अब मैं सब के समक्ष इन अभिमानी ब्राह्मणों को नष्ट कर दूंगा।' इतना कह कर यक्षराज दण्ड लेकर सर्वप्रथम तो नगर के राजा पर ही प्रहार के लिए झपटा। उसने राजा को प्रताड़ित करते हुए कहा-'अरे दुष्ट राजा! क्या तेरे राज्य में ऐसे ही वधिक ब्राह्मण बसते हैं, जिनके हृदय में लेशमात्र भी करुणा का स्थान नहीं, जो मुनीश्वरों का वध करने में रञ्चमात्र भी नहीं हिचकते ?' उस समय राजा.अत्यन्त भयभीत हुआ। उसने यक्षराज से प्रार्थना की कि उसे इसकी रञ्चमात्र भी सूचना नहीं थी कि ये दुष्ट मुनि के प्राण लेने को प्रयत्नशील हैं। यदि उसे पूर्वाभास होता एवं उन्हें नहीं रोकता, तो वह अवश्य अपराधी था। मुनिराज ने यक्षराज से कहा-'जब राजा को सूचना नहीं थी, तो उसका कोई अपराध नहीं है।' मुनि की उक्ति सुन कर यक्ष ने राजा को मुक्त कर दिया। पर वह कुपित तो था ही, अतः दण्ड लेकर द्विज-पुत्रों को ओर अग्रसर हमा। उस समय मुनि ने यक्षेन्द्र को निषेध करते हुए कहा-'तुम मेरे लिए उन्हें भी क्षमा कर दो। उपसर्ग सहन करवा मुनियों का ...माव होता है। श्री जिनेन्द्र देव ने यति-धर्म का को.वर्णन ही किया है कि उपसर्ग पर विजय ही तप है। उप्रार्य सहन करने से कामरूपी शत्रु नाल को माता है।' मुनिराज का उपदेश सुन कर यक्षराज ने प्रार्थना की-हे दयासिन्धु भाप इन अपराधियों को दण्ड |ने से मुझे वञ्चितम करें। बाप अपना धर्म-ध्यान कीजिये। इस बोए पापका ध्यान देना उचित नहीं। मैं झ Jun Gun Aaradha Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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