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________________ P.P.AC.Gurmathasun MS. एक जीवन-दर्पण सा श्री नृपेन्द्र कुमार जैन राग और विराग का अद्भुत सामञ्जस्य, बाल - ब्रह्मचारी किंतु जिसके प्यार में जीवन के फूलों की गंध समायी है, समर्पित श्रावक, साथ संस्थापक ही अथाह सागर-सा व्यक्तित्व देश और काल की जैन पुस्तक भवन सीमा का अतिक्रमण कर 15 जनघरी 1678 को अपनी जीवन - इमारत को सदा-सदा के लिये खाली कर के चला गया। थम वर्ष (सन् 1901) में प्रथम माह का वह प्रथम दिवस था जब देवरी (सागर) निवासी सिंघई मूलचंद जी और बेटी बाई के गृह में उनके चतुर्थ पुत्र की किलकारी गज उठी। जैन - धर्म के प्रचार और प्रसार में यह बालक अप करेगा - ऐसी कल्पना शायद ही उस समय किसी ने की हो। “होनहार बिरवान के होत चौकने पात-बा मान्दाक्षा जन-धर्म की महान विभूति महात्मा भगवानदीन जी के संरक्षण में सुप्रसिद्ध ऋषभ ब्रह्मचयोश्रम ( हस्तिनापुर ) में हुई। सत्सग न जीवन को नूतन प्रवाह दिया और समय ने यवा नपेन्द्र कमार को बाल-ब्रह्मचारी बना दिया। बचपन के बीज उम्र के साथ अंकुरित और फलित होते रहे। नृपेन्द्र कुमार जी का ब्रह्मचारी जीवन युग के कल्याण हेतु समापन माग था-जंन साहित्य का प्रचार और प्रसार / जैन साहित्य के प्रकाशन में उनकी द्रष्टि सांसारिक नहीं, आध्यात्मिक लाभ की ओर थी-इसीलिये सस्ते और उपयोगी साहित्य का प्रकाशन कर वे आत्मतष्टि का अनुभव करते थे। जैन-चित्रों के माध्यम से वे मानव मन पर अध्यात्म की एक अमिट छाप अंकित करना चाहते थे- अपने उस प्रयास में उन्हें अपूर्व सफलता मिली। उनका जीवन महाकवि प्रसाद के महान विचारों को अपने में समेटे है-"कित न परिमित करो प्रेम, सौहार्द विश्व-व्यापी कर दो।" नृपेन्द्र कुमार जी ने अपने प्रेम को दाम्पत्य के संकुचित घेरे में नहीं बांधा किंतु उनका प्रेम विश्व-बंधुत्व के उन्नत धरातल 'पर प्रकट हुआ। उनकी आत्मीयता के घेरे में जो भी आया - वह उन्हें अपना निकटतम समझता था-इस घेरे में उम्र का कोई बंधन नहीं था। बच्चे से वृद्ध तक सभी उनके घनिष्ठ मित्र थे-वे एक अच्छे सलाहकार थे, वे अपने प्रत्येक सहयोगी का सही मार्गदर्शन करने का प्रयत्न जीवन भर करते रहे। 'जीवन दर्पण की तरह जियो। स्वागत सब का, पर संग्रह किसी का भी नहीं-यही सञ्चा ब्रह्मचर्य है। और इसी धरातल पर नृपेन्द्र कुमार जी सम्पूर्ण मानव-जगत का हृदय. से स्वागत करते हुए भी समर्पित श्रावक का जीवन जीते रहे / यही तो राग और विराग का सांमजस्य है। जब मृत्यु ने द्वार खटखटाये तो दर्पण से निर्मल हृदय ने स्वागत में द्वार खोल दिये और चिर निद्रा में लीन हो गये। इस प्रकार एक जीवन-सर्जक इस धरा पर अपना कार्य कर महाप्रयाण कर गया। उस महान साधक को मेरा शत-शत नमन : -डॉ विपला चौधरी Jun Gan Aaradhak Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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