SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PP Ad Gunun MS दृष्टिगत होते थे। रमणीक द्वारावती इन्द्रपुरी-सी प्रतीत होती थी। अष्ट प्रकार से विवाह की समस्त प्रस्तुति हो जाने पर प्रद्युम्न श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा कर मित्र राजाओं के समीप गया। अश्वारोहण के पूर्वीही उसने कहा-'पूर्व काल की प्रतिज्ञा के अनुसार विमाता सत्यभामा 263 की वेणी पर पग धर कर ही मैं अश्व पर आरूढ़ होऊँगा। काका बलदेवजी के समक्ष यह प्रतिज्ञा हो चुकी है।' तब रुक्मिणी ने आकर समझाया-'हे प्रिय पुत्र ! ऐसा आग्रह करना उचित नहीं। तेरे आगमन से ही सत्यभामा का समस्त दर्प भङ्ग हो चुका है। अब उसका अधिक उपहास उचित नहीं। वह भी तेरे लिए माता तुल्य है।' माता के कथनानुसार प्रद्युम्न ने अपना हठ त्याग दिया। वह कल्पवृक्ष की भाँति याचकों को इच्छानुसार दान करता हुआ अश्व पर आरूढ़ हुआ। कालसम्वर, बलदेव, श्रीकृष्ण आदि राजा उसे उद्यान में लेकर गये। उस प्रमुख उद्यान में प्रद्युम्न एवं रति का विवाह सम्पन्न हुआ। इसके अतिरिक्त उदधिकुमारी आदि पञ्च-शतक एवं अष्ट (508) रूपवती कन्याओं के संग भी प्रद्युम्न का विवाह हुआ। श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार विवाह का समस्त कार्य विद्याधरों ने ही सम्पन्न किया। द्वारिका में विद्याधरों का यथेष्ट सम्मान हुआ। वे अतिथि के रूप में कितने ही दिवस पर्यंत वहाँ रहे। एक दिन कालसंवर ने नम्रतापूर्वक नारायण श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि यदि वे अनुमति दें, तो वह अपने स्वदेश को प्रत्यागमन करे। उसे उत्सुक देख कर श्रीकृष्ण कहने लगे-'हे राजन ! प्रद्युम्न का विद्याध्ययन एवं लालन-पालन आप के महल में ही हुआ है। अतएव वह पहिले आप का पुत्र है, तत्पश्चात् उस पर मेरा अधिकार है। उसके सम्बन्ध में आप जैसा उचित सममें निर्णय करें।' रुक्मिणी ने भी अपनी सम्मति व्यक्त कर दी। पर भला कालसम्वर क्या कह सकते थे ? अन्य के पुत्र को संग ले जाने की क्षमता तो उनमें थी नहीं। अन्त में श्रीकृष्ण ने राजा कालसंवर के साथ आये समग्र विद्याधरों को उपहार-सम्मान से सन्तुष्ट कर विदा किया। कुछ दूर तक स्वयं उन्हें पहुँचा कर रुक्मिणी के साथ श्रीकृष्ण तो लौट आये, किन्तु प्रगाढ़ स्नेह में बँधे होने के कारण कुमार दूर तक गये 263 | एवं उनके समझाने पर ही वापिस लौटे। ___ कुमार के विवाह से यदुवंशियों को जो प्रसन्नता हुई, उसका वर्णन करना लेखनी से परे की वस्त है। रुक्मिणी, नारद आदि सभी सन्तुष्ट हुए। सत्यभामा का विषाद लक्ष्य कर नारद मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे Jun Cun Aare Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy