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________________ 'लालन- 248 PP Ad Gunun MS ऐसे नाना विधि कल्पना कर रुक्मिणी कुछ काल तक मौन रही। पर कुछ काल पश्चात् ही उसने विचार किया-क्या यह मी सम्भव हो सकता है कि नारायण श्रीकृष्ण का पुत्र ऐसा कुरूप हो। मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र में प्रतिभा तो होनी ही चाहिये। स्वयं नारद मुनि ने तक कहा था कि तेरे पुत्र का विद्याधर पालन हो रहा है, वह समस्त विद्याधरों का स्वामी होकर लौटेगा। ऐसी स्थिति में मैं क्या समझ ? हो सकता | है, वह मेरी परीक्षा ले रहा हो। फिर भी षोडश लाभों को प्राप्त करनेवाला एवं अनेकों विद्याओं का अधिप रोसी असहाय अवस्था में तो नहीं हो सकता है।' रोसे सङ्कल्प-विकल्प में पडी हई रुक्मिणी तबक्षलक से कहने लगी-'हे प्रभु! मैं आप से एक जिज्ञासा करती हूँ। कृपया अपने जनक-जननी तथा स्वयं का परिचय देकर मुझे सखी करें।' क्षल्लक ने कहा- 'जिसने घर-द्वार, माता-पिता को त्याग दिया हो, उससे उसके कुल का परिचय क्यों जानना चाहती हैं ? हे माता! आप सदृश सम्यक्त्व धारण करनेवाली नारी को ऐसे अनर्गल प्रश्न नहीं करने चाहिये / फिर भी जब आपने जिज्ञासा प्रकट की है, तो स्पष्ट करता हूँ-नारायण श्रीकृष्ण मेरे जनक हैं एवं आप मेरी माता हैं, कारण श्रेष्ठ श्रावक ही यतियों के माता-पिता हुआ करते हैं।' ___ जिस समय क्षुल्लक एवं रुक्मिणी में वार्तालाप हो रहा था, उसी समय सत्यभामा को उस प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया, जो पूर्व काल में ही की जा चुकी थी। उसने एक नापित (नाई) के साथ अपनी दासियों को रुक्मिणी के समीप भेजा। वे गीत गाती हुईं रुक्मिणी के महल में जा पहुँचों / एकाएक उनका आगमन ज्ञात होने पर रुक्मिणी के तो शोक का पारावार न रहा। उसके नेत्रों से अश्रुओं की अविरल झड़ी लग गयी। रुक्मिणी की ऐसी विचित्र दशा देख कर कुमार ने प्रश्न किया-'हे माता! यह तो बतलाओ कि तुम्हें सहसा तीव्रतम शोक क्यों उत्पन्न हुमा?' तब वह कहने लगी- 'सत्यभामा नाम की मेरी सौत है, जो हर प्रकार से कला, विद्या एवं सौन्दर्य में अपूर्व है / यद्यपि मैं उतनी गुणवती नहीं हूँ, तब भी महाराज श्रीकृष्ण मेरे ऊपर विशेष अनुग्रह रखते हैं। एक समय हम दोनों ने परस्पर प्रतिज्ञा की कि जिसके पहिले पुत्र उत्पन्न हो, उसका विवाह मी पहिले हो। उस विवाह के समय दूसरी अपनी शिखा (चोटी) के के शों से पुत्रवती के पग पूजे संयोग से पहिले मेरे गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु उसी दिवस सत्यभामा के गर्भ से भानुकुमार की उत्पत्ति हुई। पर दुर्भाग्य का कोई क्या करे ? मैं ऐसी पुण्यहीन निकली कि मेरे पुत्र को दैत्य हर कर ले गया। Jun Gun Anda 148
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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