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________________ उत्तेजित हो गया एवं बोला-'जब मेरे समान अल्पाहारी व्यक्ति की उदरपूर्ति नहीं हुई, तो स्थूलकाय एवं भोजनभट्ट अन्य विप्रगण कैसे सन्तुष्ट होंगे? तुम सदृश कृपण का अत्र मेरे उदर में टिक नहीं सकता।' इतना कह कर उसने समस्त आहार का वमन कर दिया, जिसमें सत्यभामा सहित उपस्थित नारियाँ और महल || 146 को समग्र वस्तुएँ डूबने-उतराने लगीं। तत्पश्चात् जल ग्रहण कर प्रद्युम्न वहाँ से चल पड़ा। कुमार ने आगे एक भव्य मन्दिर देखा, जिसमें उत्सव सम्पन्न हो रहे थे। विद्या ने बतलाया कि यह उसकी माता रुक्मिणी का मन्दिर है। कुमार ने एक क्षुल्लक का वेश धारण किया। अपना सर्वाङ्ग इतना विकृत बना लिया कि उसे देखते ही घृणा आती थी। उसने क्षुल्लक के वेश में अपनी माता के मन्दिर में प्रवेश किया। वह रत्न-खचित मन्दिर उस समय विभिन्न प्रकार के वाद्यों से मुखरित हो रहा था। वह चन्दन तथा अगुरु के धूम्र से व्याप्त हो कर सारे नगर को सुगन्धित कर रहा था। मन्दिर में प्रवेश करते ही क्षुल्लक ने देखा-जिन-प्रतिमा के सम्मुख कुशासन पर रुक्मिणी विराजमान है। उसके चतुर्दिक कामिनियों का समूह खड़ा था। रुक्मिणी को देख कर क्षुल्लक वेशधारी कुमार सोचने लगा-'क्या यह इन्द्राणी हैं अथवा महादेव की पार्वती ? शायद नारायण श्रीकृष्ण के निमित्त समस्त जगत् की सुन्दरता का सार मिला कर इनका निर्माण हुआ हो।' अपनी माता को जिनेन्द्र भगवान की आराधना में तल्लीन देख कर कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया। सत्य है, उत्तम कुल में उत्पन ऐसा कौन व्यक्ति है, जो अपने गुरुजन में श्रद्धा नहीं रखता ? क्षुल्लक को देख कर रुक्मिणी बड़ी प्रभावित हुई। उसने मस्तक नवा कर उसे नमस्कार किया। उसके आसन के लिए रुक्मिणी ने रत्नजड़ित सिंहासन प्रस्तुत किया एवं स्वयं सम्मान में खड़ी हो गयी। पर देर तक खड़ी रहने से एवं पृथुल उरोजों के भार से उसकी क्षीण कटि पीड़ित हो रही थी। क्षुल्लक ने इङ्गित से | बैठने का निर्देश दिया। फलतः वह बैठ गयी। दोनों में धर्म-चर्चा होने लगी। कुछ काल पश्चात् क्षुल्लक ने कहा'हे माता ! सम्यक्त्व में आप को प्रसिद्धि सुन कर ही मैं यहाँ आया हूँ। किन्तु मुझे दुःख है कि वैसा आपको | नहीं पा रहा हूँ। मैं यात्रा के श्रम से क्लान्त हूँ, तदुपरान्त भी आपने चरण-प्रक्षालन के लिए प्रासुक जल-व्यवस्था | नहीं की।' रुक्मिणी चित्त में विचारने लगी- 'वस्तुतः इस समय मुझ से यह भारी त्रुटि हुई है।' उसने तत्काल ही उष्ण जल लाने के लिए सेवकों को आदेश दिया। सेवक जल की व्यवस्था हेतु दौड़े, किन्तु Jun Gun anach 146
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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