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________________ / 11 PP Ad Gunun MS है। अतः मुझे क्या करना चाहिये ? किस प्रकार उसे कठिन दुःख का सामना करना पड़े? उसका अभिमान अवश्य चूर होना चाहिये। मैं उसे दुःखी देख कर ही शान्त होऊँगा। पहिले तो नारद ने यह विचार किया कि किसी के द्वारा सत्यभामा का अपहरण कराऊँ। इससे उसे हार्दिक सन्ताप होगा। पर तत्काल ही उनकी | विचारधारा में परिवर्तन आया। कारण यह था कि नारायण श्रीकृष्ण उनके अन्तरङ्ग सखा थे। सत्यभामा के | अपहरण से उन्हें भी घोर दुःख होगा। अतः यह युक्ति उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुई। तब उन्होंने अन्य युक्ति सोची-'यदि माया-विशेष से सत्यभामा को पर-पुरुष पर आसक्त दिखा दिया जाये, तो श्रीकृष्ण को उसके प्रति घृणा हो जायेगी। क्योंकि प्राणप्रिया होते हुए भी लोग पर-पुरुषासक्त पत्नी को त्याग देते हैं-अतः यही युक्ति ठीक है।' फिर भी नारद का विचार स्थिर न रह सका। उन्होंने विचार किया-'सत्यभामा गुणवती एवं कुलवतो स्त्री है। वह श्रीकृष्ण को प्राणवल्लभा है। उसके शील एवं पवित्रता के श्रीकृष्ण कायल हैं। किसी के कहने मात्र पर उन्हें विश्वास न होगा। यदि सत्यभामा के प्रति उनका विश्वास वैसा ही दृढ़ बना रहा, तो मेरे प्रति उनको अश्रद्धा हो जायेगी। वे स्वप्न में भी मेरा विश्वास न करेंगे। कारण बुद्धिमान लोग असत्यवादी का विश्वास नहीं करते।' नारद की विचारधारा भँवर-जाल में डूबने-उतराने लगी। उन्होंने निश्चय किया किया कि यदि मेरा विश्वास उठ गया, तब तो मुझे दोनों ओर से अपयश ही मिलेगा। पुनः वे अन्य युक्ति विचारने में तल्लीन हो गये / थोड़ी देर बाद उन्हें एक उत्तम उपाय सूझ पड़ा। सत्य है, एकाग्र चित्त से विचार करने पर अन्तःज्ञान का प्रकाश होता है, जिससे दुःख की निवृत्ति होती है। नारद ने विचारा-'नारियों के लिए सौत का दुःख ही सब से बड़ा दुःख होता है। वे वैधव्यावस्था, निपूतावस्था एवं दरिद्रता जैसे दुःखों को झेल लेते हैं, किन्तु सौत का दुःख उन्हें असह्य होता है।' यह धारणा उनके चित्त में दृढ़ हो गयी। वे यही निश्चय कर ढाई द्वीप की अपनी विचरण भमि में किसी अनन्य रूपसी की खोज में निकल पडे। सर्वप्रथम नारद विजया पर्वत पर गये। वहाँ विद्याधरों की राजधानी थी। वे विद्याधरों राजाओं से अनुमति लेकर उनके अन्तःपुर (रनिवास) में जा पहुँचे। किंतु उन अन्तःपुरों में कोई ऐसो विवाहिता अथवा अविवाहिता नारी रोसी न दीख पड़ी, जो सत्यभामा के पग के अंगुष्ठ की भी अपने सौन्दर्य से समता कर सकती हो। इसी प्रकार विजयार्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों की रूपसियों को देख कर वे अत्यन्त निराश हुए। वे तत्काल निश्चित Pr Junun A nak
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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