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________________ || 203 P.P.AC.GurmathasunMS. निदाप का प्राणदण्ड द रह हैं / ' तब राजा मधु ने शास्त्र-प्रमाण के साथ उत्तर दिया 'पर-स्त्री गमनं नूनं देवद्रव्यस्य भक्षणे। सप्तमं नरकं यान्ति प्राणिनो नात्र संशयः // ' . . अर्थात् इसमें सन्देह नहों कि पर-स्त्री गमन एवं देव-द्रव्य अपहरण करनेवाले को सप्तम नरक की प्राप्ति || होती है। यदि न्याय-तुला पर समस्त पाप एक ओर पड़ले पर रखे जाय एवं पर-स्त्री सेवन का पाप दूसरी || और के पड़ले पर, तो भी अपेक्षाकृत पर-स्त्री-गमन ही मारी होगा। अतएव निश्चय समझ लो कि इससे घोर निन्दनीय अन्य कोई पाप नहीं है। पर-स्त्री गमन करनेवाले लोक में कलङ्क, प्राणदण्ड एवं परलोक में नरक के पात्र होते हैं। इसलिये पराई स्त्री सेवन का सर्वथा त्याग करना चाहिये। वह उच्छिष्ट वस्तु के सदृश होती है, उससे धन-धान्य आदि सम्पदा का विनाश हो जाता है।' अब चन्द्रप्रभा को प्रत्युत्तर का सुअवसर मिला। उसने कहा-'हे महाराज ! आप तो प्रकाण्ड शास्त्रवेत्ता बन गये हैं। जब आप पाप-पुण्य के स्वरूप को जानते हैं, तो मेरा हरण क्यों किया? क्या आपने मेरे पितृगृह जाकर मेरे साथ परिणय किया था? यदि नहीं तो क्या आप मेरे सतीत्व भङ्ग करने के अपराधी नहीं ठहरेंगे?' उस समय राजा मधु को तो मानो काठ मार गया। मला, वै क्या उत्तर देते ? उसो समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो आया। वे अपने दुष्कृत्यों पर विचार करने लगे- 'मैं ने तो घोर निन्दनीय कर्म किये हैं। पर-स्त्री सेवन एवं पर-स्त्री अपहरण सर्वथा अनुचित है। मैं तो धर्माधर्म के स्वरूप को भली प्रकार जानता था, फिर यह दुष्कर्म कैसे हो गया ? असत्य स्वप्न में भी सत्य के सिंहासन पर आरूढ़ नहीं हो सकता एवं अधर्म त्रिकाल में भी धर्म का पद प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये बुद्धिमानों को चाहिये कि वे अधार्मिक कार्यों का परित्याग कर दें। इस देह की उत्पत्ति माता-पिता के रज-वीर्य से हुई है। यह मल-मूत्रादि के अशुचि स्थानों में रह कर निन्द्य द्वार से बाहर निकला है। जब यह अपवित्र शरीर सप्तधातुमयो अस्थि-चर्म का पिण्ड है. तो इसे देख कर मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है ? यह संसार की घोर विचित्रता है। क्या मेरे अन्तपुर में रूपवती रानियां नहीं थीं? फिर मेरे द्वारा पर-स्त्री का सतीत्व कैसे मङ्ग हुला ? मैं ने इस भव में जैसा उद्यमउपार्जन किया, उसका तदनुरूप फल तो भोगना ही पड़ेगा। इस प्रकार विषयों से विरक्त होकर राजा मध | संसार की असारता पर गूढ़ विचार करने लगे। उनकी वैराग्य परिणति उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। उन्होंने उस Jun Gun ha Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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