________________ श्रीमेकतुलसशिविरचित श्रीनामाकराजारितम् / विवरणम:- नरः देवस्य द्रव्येण देवद्रव्येण देवद्रव्योपभोगेन यत् सुखमेव सौख्यं मन्यते। परस्य दारा: परदारा: तेभ्य परदारत: परस्त्रीभोगात् यत् सौख्यं सुखम् अनुभवति। तत् सौख्यं ध्रुवं निश्चितं, न विद्यते अन्त: यस्य तद् अनन्ती अनन्तानन्तंच तद् दुःखञ्च अनन्तानन्तदु:खं, तस्मै अनन्तानन्तदु:खाय कल्पते // 54 // सरलार्थ:- नर: देवद्रव्यस्य उपभोगेन यत्सुरवं मन्यते। परदारोपभोगेन च यत्सुखमनुभवति। तत्सुखं एवं अनन्तानन्तदुःखाय कल्पते // 54 // ગજરાતી:- જે મનુષ્ય દેવદ્રવ્યના ઉપભોગ વડે, તેમજ પરી સેવન દ્વારા જે મનનું માની લીધેલ સુખ મેળવે છે તે સુખ નિક अनंतानंg:41 नाथाय . // 54 // हिन्दी :- जो आदमी देवद्रव्य के उपभोग द्वारा, वैसे ही परस्त्री सेवन द्वारा मन का मान लिया (मनमाना) हुआ सुख प्राप्त करता है वह सुख निसंदेह अनंतानंत दु:खदायक होता है।।५४॥ मराठी :- जो मनुष्य देवद्रव्याच्या उपभोगात तसेच परस्त्रीसेवनात सुख आहे. असे समजतो ते सुख नि:संशव त्याला अनंतानंत दुःख देणारे ठरते.॥५४|| English :- The man who believes that by utilzing God's money or by committing adultery, he attains utmost bliss, then he is carressing a wrong notion, as these two achievements are bound to bestow on him eternal sorrows and uncountable agonies. चेत्यद्रव्यविणासे रिसिधए पवयणस्य उड्डाहे॥ सञ्जयिचउत्थभङ्गे मूलग्गी बोहिलाभस्स // 55 // चैत्यद्रव्यविनाशे ऋषिघाते प्रवचनस्य उद्घाते। सम्यतिचतुर्थभंङ्गे मूलेऽग्रिर्बोधिलाभस्य // 55 // अन्वयः- चैत्यद्रव्यविनाशे ऋषिघाते प्रवचनस्य उद्घाते संयतिचतुर्थभङ्गे बोधिलाभस्य मूले अग्निः पतति // 55 // . 蒙原養護靈靈靈靈靈靈靈yg]囊藏藏藏藏藏藏毒 m