________________ | शीमेरुतुजसूशिविरचित नीनामाकराजाचारितम् गत्वा शत्रुञ्जये नाग-श्रेयसे दीयते ह्यदः // श्रुत्वेति जायया नुन्न: कनीयानित्यवोचत // 48 // कन्या वरारे जाताऽसौ, परं नोद्वाहिता पुरा।। धनं विनाऽथ तत्प्राप्ती, सोत्सवेन विवाह्यते // 49 // दध्यौ समुद्रः श्रुत्वेति, स्वभावाद् दुष्टधीरसौ। भार्यया प्रेरितो जातो, वात्येरितकृशानुवत् // 50 // सुवंशजोऽप्यकृत्यानि कुरुते प्रेरित: स्त्रिया। स्नेहलं दधि मथ्नाति पश्य मन्थानको न किम् // 51 // देवद्रव्योपयोगेन घोरां यास्यति दुर्गतिम् / ततो बन्धुरयं बन्धुरया बोध्यो गिरा भया॥५२॥ निश्चित्येत्यवदद् भ्रातः। पातकात् श्वभ्रपातुकात्। न किं बिभेषि यद्देवद्रव्यभोगमपीच्छसि // 53 // देवद्रव्येण यत्सौख्यं, यत्सौख्यं परदारतः। अनन्तानन्तदु:खाय, तत्सौख्यं जायते ध्रुवम् // 54 // चेत्यद्रव्यविणासे रिसिधए पदयणस्य उड्डाहे // सञ्जयिचउत्थभङ्गे मूलग्गी बोहिलाभस्स // 55 // चैत्यद्रव्यविनाशे ऋषिघाते प्रवचनस्य उद्धाते। सम्यतिचतुर्थभङ्गे मूलेऽनिर्बोधिलाभस्य // 55 // वरं सेवा वरं दास्यं, बरं भिक्षा वरं मृतिः। निदानं दीर्घदु:खाना, न तु देवस्वभक्षणम / / 56 / / भ्रातुरित्युपदेशेन, मौनी सिंहस्तदोत्थितः / / एकान्ते भार्ययाऽभाणि, हा! मौग्ध्याद् वञ्च्यसे कथम् // 57 / / कपोलकल्पितैर्यद्वा को नाम न हि वञ्च्यते॥ वरं यथा तथा सर्वमध वा ऽऽ दत्स्व तन्निधिम् // 58 // एवं भार्येरित: सिंहो लङघनत्रितयं व्यधात् / अहं पृथग भविष्यामी-त्युवाच स्वजनानपि // 59 // तेषां बलेन वेश्माध निधानार्धञ्च सोऽग्रहीत्। समुद्रस्तु ततः शत्रुञ्जययात्राचिकीरभूत // 6 // निधानाधं व्यये तीर्थे नागपुण्यार्थमित्यसौ। यावच्चलति सिहेन, तावद्राक्षे निवेदितम् // 61 // लेभे निधानं मात्रा, यात्राव्याजादसौ ततः॥ तदादाय व्रजन्नस्ति, न दोषोऽथ मनाग् मम // 2 // मुहूर्तक्षण एवाऽथ, राज्ञाऽऽहूय नियन्त्रितः। समुद्रः कारणं ज्ञात्वा, निधानाध पुरोऽमुचत् // 63 // सावं स्वरूपं चावेद्य, निधिपत्रमदर्शयत्। यथावस्थितवक्तेति, समुद्रं मुमुचे नृपः // 6 //