________________ सदनुष्टानं क्रियारूपं धर्मशब्देन व्यपदिश्यत इति. एवं सर्वत्र कार्यकारणनावो वेदितव्यः, तथा धमहेतुत्वात्पुण्यमपि धर्मः, पुण्यं च पुण्यप्रकृतयः, ताश्चेमाः-सायं उच्चगोयं / सत्ततीसं त्र नाम पगईन / तिन्नि य बाऊणि तहा / बायालं पुन्नपगई // 1 // सत्तत्तीसं नामस्स / पगई पु. नमाय ता य श्मा // मणुयग तयणुपुत्व। / देवगइ तयाणुपुत्री य // 2 // पंचिंदियजाई तह / दे. हाणं पंचयं च ते य श्मे // नरालिय वेनविय / श्राहारय तेय कम्मशा // 3 // अंगोवंगा तिन्नेव / पाश्मा पाश्मं च संघयणं / समचनरंसं अणहा / वन्न रसा गंध फासा य // 4 // गुरुखहु पराघायं / ऊसासं यायवं च जोयं // सुपसबा विहगग / तसायदसगं च निम्माणं // 5 // तस बायर पंऊत्तं / पत्तेय थिरं सुनं च सुभगं च // सूसरयाएऊजसं / तसाझदसगं 3 | मं हो॥ 6 // तिबयरेणं सदिया। सत्ततीसं तु नाम पगई॥ तिन्नि य आऊणित्ति य / सु रनरतिरियानभेएण-॥ 3 // तथा वृषः, वृषशब्देन धर्मोऽभिधीयते. श्रेयः श्रेयःकर्म प्रशस्यं सदनु टानमेव: सद्वृत्तं सुकृतं च तदेव. शुभस्य पुण्यवक्ष्याख्या..सदनुष्टानमिति, सच्चं तदनुष्टानं च शु जव्यापाररूपं सदनुष्टानं. इत्याद्या एवमाद्याः, यादिशब्दात सच्चारित्रं सुचरितं चरणं निवृत्तिर्विरति P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust