________________ धर्मः // 17 // वयमत्र समायाताः / संहृतः सोऽपि वेधसा // एषोऽप्यत्रागतो दृष्टः / सांप्रत जणितो मः / - या॥ 20 // दत्वा लदं जनाध्यदं / गृहेऽहं दक्षिणेक्षणं // व्यापारोऽयं महाराज / संमतो व्यव. | हारिणां // 21 // राझोक्तं शोभनं वक्ति / मंत्री नीतिविचक्षणः // तदहो मंत्रिणो दोषो / विद्य 310 ते नात्र कर्मणि // 2 // ताराचंद्रस्ततः प्राह / सत्यमेतन संशयः // व्यवहारविलोपो हि / परिणामे न सुंदरः // 23 // संति प्रऋतलोकादि-लदाणि ग्रहणे मम // तन्मध्यमिलितं नैव / लप्स्यते तव लोचनं // 20 // तदर्पयादि मे वामं / तत्तुल्यं वीदय येन ते // यानीय च जनाध्यदं / दीयते दक्षिणेदाणं // 25 // ततः संजातखेदेन / चिंतितं काणमंत्रिणा // अहो मे मूर्खता येन / दीर्घ दृष्टं न चेतसा // 26 // अथ संकटमायातं / लोकनीतिरियं पुनः // सर्वनाशे समुत्पन्ने / ह्यधैं त्यजति पंमितः // 17 // निर्जितोऽहं महानाग / बुधिस्ते भद्र नद्रिका // राजाध्यदं मया मुक्तो / व्यवहारं निजं कुरु // 20 // चर्मकारः समानीतो / जयन्नीतमना नरैः // ब्रूहि रे वणिग्नांमस्य / व्यापारः किं निवारितः / | तेनापि कथितं सर्व / यत्कृतं यच्च भाषितं // सन्यैरनाणि निर्दोष-श्चर्मकारोऽपि लक्ष्यते // 30 // | PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust