________________ प्रमि हानलः // 12 // श्रापाणिपीडनात्प्रौढिं / प्राप्तो यः प्रेमपादपः // जवदृष्टिसुधावृष्टिं / विना मंक्षु स शुष्यति // 23 // त्वया समं समेष्यामि / स्वामिन्नहं बलादपि // श्याग्रहैकवाचाला / समुद्रः प्रत्यवोच तां // 24 // नर्तृ चित्तसरोहंसि / प्रत्युत त्वां सहाददे / / परं सिरीषमृदंग्या / विदेशः क्वे. शकृत्तव // 25 / / पुरुषः परुषः सर्व / सहते पथि न स्त्रियः // त्रासेऽपि तासां न त्राणं / किंतु | चिंतेव केवलं // 26 // ततस्तिष्ट त्वमत्रैव / त्वयि प्रेमवशंवदः // दूरादपि वलिष्येऽहं / पारापत . थापणू जे प्रेमरूपी वृत वृधि पाम्युं चे, ते हवे आपनी दृष्टिरूपी अमृतनी वृष्टिविना जलदी सू. का जशे. // 23 // माटे हे स्वामी! हुं तो हरथी पण यापनी साथेज यावीश, एवी रीते फक्त आग्रहथीज बोलती एवी ते शीलवतीने समुऽदत्ते कडं के, // 24 // हे जरिना चित्तरूपी तनावपते हंसीसरखी : जो के तने हुं साथे ले जनं, परंतु सरसवना पुष्पसरखी कोमळ शरीर. वाळी तुंबे, माटे तने परदेशमा मुःखी थर्बु पडशे. // 25 // पुरुष कग्नि हृदयनो होवाथी मा. मां सघg सहन करे , परंतु स्त्री सहन करी शकत नथी, मर वखते. पण तेजने कई श. रणरूप नथी, केवळ तेजने चिंताज थया करे . // 26 // माटे तुं यहींज रहे, हुं तारामां - - - P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust