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सुन कर थावच्चाकुमार नाम के एक बालक को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया उसने जैन साधु बनने का दृढ़ निश्चय कर लिया । उस के माता पिता ने बहुत मना किया, परन्तु जब वह न माना तो माता पिता ने श्री कृष्ण जी के दरबार में दुहाई मचाई | श्री कृष्ण जी बालक को खुद समझाने उसके मकान पर आये और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दुःख है, जिस के कारण तुम दीक्षा ले रहे हो ? मैं अवश्य तुम्हारे दुःख को मेदूँगा” | बालक ने उत्तर दिया, "मुझे कर्मरोग लगा हुआ है जिस के कारण आवागमन के चक्कर में फंसकर अनादि काल से जन्म मरण के दुःख भोग रहा हूं, मेरा यह दुख मेट दो"| ऐसा सुन्दर उत्तर पाकर श्रीकृष्णजी बड़े प्रसन्न हुये और उन्हों ने बालक को आशीर्वाद देकर उसके माता-पिता को सराहा कि धन्य हो ऐसे माता-पिता को जिनके बच्चे ऐसे शुभ विचारों और उत्तम भावनाओं वाले होते हैं । माता पिता ने कहा कि यही तो कमा कर हमारा पेट भरता था, अब हम बूढ़ों का गुज़र कैसे होगा ? श्री कृष्ण जी ने कहा - " इसकी चिन्ता मत करो, जब तक तुम लोग जीवित रहोगे, सरकारी खजाने से तुमको यथेष्ट सहायता मिलती रहेगी" । और श्री कृष्ण जी ने समम्त राज्य में मुनादी करादी कि जो जिन - दीक्षा धारेगा, उसके कुटुम्ब वालों को सारी उम्र तक राज्य की ओर से खर्च मिला करेगा' और उस बालक को अपनी चतुरंग सेना, गाजे-बाजों और ठाठ-बाट के साथ स्वयं श्री नेमिनाथ जी के समोशरण में ले जाकर जिन दीक्षा दिलवाई |
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श्री कृष्ण जी अगले युग में 'मम' नाम के बारहवें तीर्थंकर इसी भारतवर्ष में होंगे, इसीलिये भावी तीर्थंकर होने के कारण जैनधर्म वाले श्री कृष्ण जी को परम पूज्य स्वीकार करते हैं ।
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१- २. जैनग्रन्थ माला ( रामस्वरूप पब्लिक हाईस्कूल नाभा ) भा० १ १० ७२ । ३. हरिवंशपराण ।
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