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________________ आस्तां तव स्तवनमस्त समस्त दोषं त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति पूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रमैत्र पद्म करेषु जलजानि विकासभाजि ।। ___ अर्थात्-भगवन् ! सम्पूर्ण दोषों से रहित आपकी स्तुति की तो बात दूर है, आपकी कथा तक प्राणियों के पापों का नाश करती है । सूर्य की तो बात जाने दो उसकी प्रभामात्र से सरोवरों के कमलों का विकास हो जाता है। प्राचार्य कुमुदचन्द्र ने भी बतायाःहृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति, जन्तोःक्षणेन निविड़ा पि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। ____ अर्थात्-हे जिनेन्द्र ! हमारे लोभी हृदय में आपके प्रवेश करते ही अत्यन्त जटिल कर्मों का बन्धन उसी प्रकार ढीला पड़ जाता है जिस प्रकार वन-मयूर के आते ही सुगन्ध की लालसा में चन्दन के वृक्ष से लिपटे हुए लोभी सो के बन्धन ढीले हो जाते हैं। कुछ लोगों को भ्रम है कि जब माली की अव्रती कन्या अर्हन्त भगवान के मन्दिर की चौखट पर ही फूल चढ़ाने से सौ धर्म नाम के प्रथम स्वर्ग की महाविभूतियों वाली इन्द्राणी हो गई' । धनदत्त नाम के ग्वाले को अहेन्तदेव के सम्मुख कमल का फूल चढ़ाने से राजा पद मिल गया। मेंढक पशु तक बिन भक्ति करे, केवल अहंन्त भक्ति की भावना करने से ही स्वर्ग में देव हो • गया तो घण्टों अर्ह-त-वन्दना करने पर भी हम दुःखी क्यों हैं ? इस प्रश्न का उत्तर श्री कुमुदचन्द्राचार्य ने कल्याण मन्दिर स्तोत्र में इस प्रकार दिया है:आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि भूनं चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनवान्धवा दुःखपात्रं यस्मात् लियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।। अर्थात्-हे भगवन् ! मैंने आपकी स्तुतियों को भी सुना, आपकी पूजा भी की, आपके दर्शन भी किये किन्तु भक्तिपूर्वक १ श्रादर्श कथा संग्रह (वीरसेवा मन्दिर सरसावा, सहारनपुर) पृ० ११२ । २ इसी ग्रन्थ का पृ० ३८२-३८३ । ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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