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________________ शिष्य थे' । इनके पुत्र जयसिंह तृ० (१६१८-१०४२ ई०) जैन धर्मानुरागी थे । इन्होंने जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के लिये जैन मन्दिर बनवाये । जैन महाकवि श्री वादिराज सूरि के ज्ञान और विद्या पर तो जयसिंह मोहित ही थे । इनके दरबार में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें भिन्न भिन्न धर्मों के प्रसिद्ध प्रसिद्ध विद्वानों ने भाग लिया, परन्तु जैन महाकवि श्री वादिराजसूरि ने सबको हरा दिया। जिसके कारण महाराजा जयसिंह ने उन्हें 'जय-पत्र' और 'जगदेकमल्लवादी' (World's Debator) की पदवी प्रदान की और सब विद्वानों को स्वीकार करना पड़ा :समदसि यदकलङ्ककीर्तने धर्मकीतिर्वचसि सुरपरोध न्यायवोद्रऽ क्षप,दः । इति समयगुरू णामेकतः संगतानां प्रतिनिधिखि देवो राजते वादिराजः । ___अर्थात्-वादिराजसरि सभा में बोलने के लिये अकलङ्कदेव के समान, कीर्ति में धर्मकीर्ति के समान, वचनों में बृहस्पति के समान और न्यायवाद में गौतम गणधर के समान हैं । इस तरह वह जुदा २ धर्मगुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधि के समान शोभित हैं। कर्मों का फल तीर्थंकरों और मुनियों तक को भोगना पड़ता है । वादिराज को कुष्ट रोग होगया था । महाराजा जयसिंह को पता चला तो वे व्याकुल होगये । राजा को खुश करने के लिये एक दरबारी ने कहा, "महाराज, चिन्ता न करो यह खबर झूठो है" । राजा ने कहा कि कुछ भी हो मैं कल अवश्य उनके दर्शनों को जाऊँगा । दरबारी घबराया कि मेरा झूठ प्रगट हो जायेगा और न मालूम क्या दण्ड मिले ? वह भागा हुआ वादिराज जी के पास आया और उनके चरणों में गिर कर सारा हाल कह दिया। १.३ Ep. Car. VIII. P. 142-143. SHJK & H. Page 68-69. ४-६ संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ खण्ड ३ पृ० १४८-१५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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