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________________ करते थे। कुछ लोगों ने राजा से शिकायत की, कि ये शिवजी की विनय-भक्ति नहीं करते और नाही प्रसाद शिवजी को अर्पण करते हैं बल्कि स्वयं खा लेते हैं। राजा को बड़ा क्रोध आया और उस ने समन्तभद्र जी से कहा कि मेरे सामने प्रसाद का भोग कराओ और शिवजी को नमस्कार करो । समन्तभद्र जी के लिये यह परीक्षा का समय था । ये सम्यग्दृष्टि थे इन की तो रग रग में जैन धर्म बसा हुआ था। इन्होने चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति-रचना और उच्चारण करना आरम्भ कर दिया, जो आज तक 'स्वयंभूस्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध है । जिस समय ये आठवें तीर्थङ्कर श्री चन्द्रप्रभु जी का स्तोत्र पढ़ रहे थे तो शिवलिङ्ग में से श्री चन्द्रप्रभु की मूर्ति प्रगट हुई । इस अद्भुत घटना को देख कर सभी लोग चकित होगये। राजा शिवकोटि स्वा० समन्तभद्र के चरणों में गिर पड़े और अपने छोटे भाई शिवायन के सहित जैनधर्म में दीक्षित होगये' । उनके साथ ही उनकी प्रजा का बहुभाग भी जैनधर्मी होगया था। काञ्ची के पल्लववंशी सम्राट हिमशीतल बौद्धधर्मी थे। इनकी रानी मदन सुन्दरी जैनधर्मी थी, जो जिनेन्द्र भगवान का रथ उत्सद निकालना चाहती थी, किन्तु राजा के गुरु भी बौद्धधर्मी थे उनका कहना था कि कोई भी जैन विद्वान् जब तक मुझे शास्त्रार्थ द्वारा विजित नहीं कर लेता तब तक जैन-रथ नहीं निकल सकता । गुरु के विरुद्ध राजा भी कुछ न कह सके ।जैनाचार्य श्री अकलङ्कदेव को पता चला तो वे राजा हिमशीतल के दरबार में गये और बौद्धगुरु से शास्त्रार्थ के लिए कहा। बौद्धगुरुने तारा नाम की देवी को सिद्ध कर रखा था इसलिए उन्हें अपने जीतने का पूरा विश्वास था । उन्होंने श्री अकलङ्कदेव से कहा कि यदि तुम हार गये तो १-२ संक्षिप्त जैन इतिहास (सूरत) भाग ३ खण्ड १, पृ० १५१-१५२ । [ ४४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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