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________________ दे" । "आपत्ति और अत्याचार को मेटने के लिये हर समय तैयार रहे"। यह बात जरूर है कि जैन वीर अनाप-सनाप लड़ता नहीं फिरता । शत्रुओं को पहले समझाने का यत्न करता है और जब वे नहीं मानते तब ही शस्त्र उठाता है । जैनधर्म की शिक्षा है- “जो शत्रु युद्ध करने से ही वश में आ सकता है उसके लिये और कोई उपाय करना अागमें घी डालने के समान है" । 'सच्चा अहिंसाधर्मी जब तक उसमें शरीर, मन्त्र, तलवार तथा धन की शक्ति है, आपत्तियों, बाधाओं और अत्याचारों को सहन करना तो बड़ी बात है, उनको देख और सुन भी नहीं सकता" | जैनधर्म में स्पष्ट रूप से आज्ञा है कि-"जो युद्ध करने पर खड़ा हो, किसी के माल या आबरू को नष्ट करने को तैयार हो या देश की स्वतन्त्रता को जोखों में डालता हो, ऐसे देशद्रोही से युद्ध करना अहिंसाधर्म है । ___कहा जाता है कि प्राचीन समय में जैनधर्म क्षत्रिय पालते थे, यह वीरों का धर्म था, परन्तु आज तो केवल वैश्य वर्ण (जैनियों) का धर्म रह गया है। इसलिये जैन धर्म अब वीरों का धर्म नहीं है, यह कल्पना भी भूठी है । यदि जैन धर्म वीरता की शिक्षा न देता तो क्षत्रिय जैन धर्म को धारण न करते और यदि करते भी तो जैन धर्म की आज्ञानुसार चलने के कारण उन की वीरता का गुण नष्ट हो जाता और वह वीरयोद्धा न होते। १. जीविउ कासु न बल्लहडं धणु पुणु कासन हछु । दोरिणवि अवसर निविडि आंह तिणसम गणइ विसि ॥ -प्राकृत व्याकरण २. “सत्सु घोरोपसर्गेषु तत्परः स्यात् तदत्यये" ||८०८ -पंचाध्यायी। ३. 'बुद्धियुद्धन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपक्रमेत्" ॥४॥ -नीतिवाक्यामृत । ४. "दण्डसाध्य रिपावुपायान्तरमग्नावाहुति प्रदामिव ॥३६॥ -नीतिवाक्यामृत ५. यद्वा नह्यात्मसामर्थ यावन्मन्त्रासिकोशकम् । ___तावद्रष्टुञ्च श्रोतुच तब्दाधां सहते न सः ॥८०६॥ -पन्चाध्यायी यः शस्मवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कण्टको वा निजमंडलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्तः, न दीनकानीन शुभाशयेषु ॥३०॥ -यशस्तिलक [४२१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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