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________________ अनेक भयानक पशु निवास करते हैं। कोमल शरीर होने के कारण भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि परिषदों का सहन करना भी बड़ा दुर्लभ है । वीर स्वामी ने बड़े विनयपूर्वक माता जी से निवेदन किया- " आप तो गुग्गों की खान हो, भली भांति जानती हो कि आत्मा मेरी है, शरीर मेरा नहीं, आत्मा के निकल जाने पर यह यहीं पड़ा रह जाता है, तो इसका क्या मोह ? जिस प्रकार नदियों से सागर और इन्धन से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार संसारी सुखों से लालची जीव का हृदय कभी तृप्त नहीं होता ? सच्चा सुख तो मोक्ष में है । मोक्ष की प्राप्ति मुनि-धर्म के बिना नहीं | स्वर्ग के देव भी मुनि धर्म पालन करने के लिये मनुष्य जन्म की अभिलाषा करते हैं मेरे याद है, जब मैं स्वर्ग में था, तो दूसरे सम्यक् दृष्टि देवों के समान मैंने भी प्रतिज्ञा की थी कि यदि मनुष्य जन्म मिला तो अवश्य मुनि-धर्म ग्रहण करू ंगा | कृपा करके मुझे अपने वचन पूरे करने का अवसर दीजिये ।" 1 । अपने अवधिज्ञान से श्री वर्द्धमान महावीर का वैराग्य जान, ब्रह्मलोक के बाल ब्रह्मचारी और महान् धर्मात्मा लोकान्तिदेव भगवान् महावीर के वैराग्य की प्रशंसा करने के लिये स्वर्ग लोक से कुण्डग्राम आये' और वीर स्वामी को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर, उनकी इस प्रकार स्तुति की : " तप से महा गन्दा शरीर परम पवित्र हो जाता है, तप मनुष्य जन्म का तत्व है, धन्य है आपने संसार को असार जाना । वह १. यह है भी स्वाभाविक कि जिसे जो वस्तु प्यारी है और जिससे उसकी प्राप्ति होती है, उसके निकट वह स्वतः ही पहुँच जाता है । लौकान्तिक देवगण विरागी आत्मानुभवी होते हैं । तीर्थंकर के महावैराग्य और श्रेष्ठ परिणाम विशुद्धि का रसास्वादन करने के लिये वे कुण्डलपुर में आये । भ०महा०, पृ०८७ २६६ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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