SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस जीव को स्त्री, पुत्र, धन, शक्ति आदि तो अनादि काल से न मालूम कितनी बार प्राप्त हुये, राज-सुख, चक्रवर्ती पद, स्वर्गों के उत्तम भोग भी अनेक बार प्राप्त हुये, परन्तु सच्चा सम्यकज्ञान न मिलने के कारण आज तक संसार में रुल रहा हूँ। मैंने पर पदार्थों को तो खूब जाना, परन्तु अपनी निज आत्मा को न समझा कि मैं कौन हूँ ? बार-बार जन्म-मरण करके संसार में क्यों भ्रमण कर रहा हूँ ? इससे मुक्त होने और मच्चा सुख प्राप्त करने का क्या उपाय है ? जब संसारी पदार्थों की लालसा में फंस कर उनसे मुक्त होने की विधि पर कभी विचार नहीं किया तो फिर मुक्ति कैसे प्राप्त हो ? इसलिये संसारी दुःखों से छूटने के लिये और सच्ची सुख शान्ति प्राप्त करने के लिये निज-पर के भेद-विज्ञान को विश्वासपूर्वक जानने की आवश्यकता है। १२-धर्म भावना जांचे सुरतरु देय सुख, चितत चिता रैन । बित जांचे बिन चितयें, धर्म सकल सुख दैन' ॥ अपनी आत्मा का स्वाभाविक गुण ही आत्मा का धर्म है। श्रात्मा के स्वाभाविक गुण तीनों लोक, तीनों काल में समस्त पदार्थों को एक साथ जानना, सारे पदार्थों को एक साथ देखना, अनन्तानन्त शक्ति और अनन्ता सुख को अनुभव करना है । यह धर्म सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान', सम्यकचारित्र', रत्नत्रय रूपी है, अहिंसामयी ६ है दशलक्षण स्वरूप है । इनको प्राप्त करने से यह {. Delight in the result when pray thou master, And dejection is the fruit Wben anxiety thr fate; Whence de ye beg, nor in an anxious mood 'FREEDOM' is sure through the Scientific gate'. 2th. Meditation on Dharma (Law). २-७. भगवान् महावीर का धर्मोपदेश, खण्ड २ । २६४ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy