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प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक
ग्रंथमांहि श्रीजिनप्रभाचार्यई " इत्थ केइ श्रइल्लागं चउण्हं सावगपडिमाणं पडिवत्ति इच्छति, तं च न गुरूगं सम्मयं, जो सपइ पडिमारूवं सावगधग्मं वोच्छिन्नं विंति गीयत्था, अओ न तव्विही भण्णइ " इम लिख्युं छइ । वली पांचमी प्रतिमाई श्रीउपासकदशानी वृत्तिमांहि चतुर्दशी प्रमुख ४ पर्वना पोसहनी रात्रि श्रावक च्यारि पहरि रात्रिना चउकि चाचरइ काउस्सग्ग लेई रहइ इम लिखया छइ । हिवणां तपांरइ पंचम प्रतिमाधर श्रावक राति उपासरामांहि पहरि पहरि लोगस्स २४ ना कासग करी सूई रहइ । एवं समस्त राति ६६ लोगस्सनउ काल काउस्सग्गनउ थाइ, तर ते प्रतिमातप किम कहवराइ ? एतले त्रिहुं प्रतिमा थकी आगिली ए साते प्रतिमाए रणवहीए श्रावकनइ प्रतिमा रूप पूरउ तप न थयउ जे पांचभी प्रतिमायइ काउस्सग्गनी विधि ते तिमइजि आगली प्रतिमायइ वहिवी, विचारिज्यो । तपांनइ सामाचारी ग्रंथांमांही पुरणचारि प्रतिमाना उच्चारनउ पाठ छइ, परं आगिली प्रतिमा वहिवाना उच्चारिवाना पाठ नथी । तथा जे पंचाशक सूत्रमांहि इयइ कालइ दीक्षा ग्राही गृहस्थ श्रावक प्रतिमा वहिवानउ अभ्यास करइ, इम जि लिख्युं छइ तेहनउ ए भाव- जिम जिनकल्प विच्छेद गयांई थकां श्रीश्रार्यमहागिरि आचार्ये जिनकल्पनउ अभ्यास कर्यड तिम प्रतिमाना अभ्यास श्रावक करइ, पुरिण प्रतिमा तप वहद्द नहीं, वली श्राविका पांहि प्रतिमा वहावइ छइ ते महा अनर्थ थाइ छ,
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