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(६) सबसे पुरानी व सबसे श्रेष्ठ है, अन्य सब स्नात्र पूजायें उसकी नकल मात्र हैं, जो फरक हीरे व काचमें होता है वही उनमें है।
एक बात और ध्यान देने योग्य है- यद्यपि खरतरगच्छीयों की भी अनेक शाखायें हैं पर समाचारी सबकी एकसी है, इससे सिद्ध होता है कि इनका कुछ मूल आधार है, किन्तु तपागच्छके आचार्यों की समाचारी भिन्नर है इस लिए “अपनी २ डफली और अपनी राग" वाली कहावत यहाँ पूर्णतया चरितार्थ होती है ।
(५)प्रथम बोल संग्रह बोल १३६ में कहा है कि 'अभयदेव त्रि के गुरु श्रीजिनेश्वरसूरिको जो श्रीदुर्लभराज ने 'खर तर' विरुद दीया होता तो अभयदेवसूरि नवांग टीकामें इसका वर्णन अवश्य करते, उन्हें जानना चाहिए कोई भी शिष्ट पुरुष अपने मुखसे अपनी (व अपने गुरु आदिकीभी) प्रशंसा नहीं करता। दूसरे अभयदेवरिने अपनी आगमों की टीकाका लेखन संशोधन चैत्यवासी आचार्य श्रीद्र णाचार्यसे कराया था, यदि वे उसमें खरतर विरुदका उल्लेख करते तो आगमोंकी टीकाके लेखन व प्रचारमें चैत्यवासी आचार्यों का जो सहयोग प्राप्त हुआ था वह न होता ।
वे अपना उत्तराधिकारी किसी अत्यन्त शक्तिशाली विद्वान शिष्य को बनाना चाहते थे, उनके औपसंपदिक शिष्य जिनवल्लभ गणिमें ये सब गुण थे, किन्तु वे प्रथम चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, इनसे तो उन्हों ने सिद्धान्त वांचना व उपसंपदा पाई थी। उस समय चेल्यवासीयोंका बहुत जोर था, सुविहित मुनिओ नाम मात्रके रहे थे अधिकांश मठाधिपती बने हुए थे । इससे कहीं . चैत्यवासियोंको अपने प्रचारका मोका न मिल जाए ! श्रीअभयदेव सूरिजोने अपने अत्यन्त विश्वस्त शिष्य प्रसन्नचन्द्रसरिसे कहा कि- जब लोगों पर जिन वल्लभ गणिका प्रभाव प्रगट हो जावे, जन समुदाय इसके महत्वको जान लें, तो इस को गच्छ नायक बनाना अभी तो वर्धमान सूरिजी
को ही मेरा उत्तराधिकारी जानना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com