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________________ (५८) पित्वेनौन्मन्यप्रसंगात् । अथोच्छिन्नायामष्टम्यां तत्कृत्यमप्युच्छिन्नमिति चेत्, अहो पांडित्यातिरेकस्तव, यतः पिता मे कुमारब्रह्मचारी'ति न्यायमनुसरसि, स्वयं कृत्वाप्यपलापित्वात् " अर्थ:- 'क्योंकि' यहतो आबालगोपाल पसिद्ध ही है कि आज हमारे अष्टमीका पौषध है, ऐसा वाक्य बोलनेवाले पुरूषसे किये जाते अष्टमी के अनुष्ठानका तो अपलाप होने से तो उन्मत्त पनका प्रसंग प्राप्त होनेसें. 'इष्टापत्ति बोलना तुझे युक्त नहीं. ' "क्योंकि इधरतो बोलता है कि-अष्टमीके नामसें हमें काम नहीं, और उधर बोलता है कि अष्टमीका हमें पौषध है यहतो तुजे उन्मत्तता प्राप्त होनेसें अनिष्टापत्ति ही हैं" अगर तूं ऐसा कहे कि- 'नष्ट अष्टमी के अंदर उसका कार्य भी नष्ट हो गया !' तो अहो तेरी पांडित्यपने की अतिरेकता !!! तूंतो 'मेरा पिता बालब्रह्मचारी' इस न्यायको अनुसरता है ! खुद काम करके अपलाप करता हुवा होनेसें. " अथ लोकव्यवहारविलयभीत्या सप्तम्यां क्रियमाणमपि न दोषायेति चेत्, वरं क्रियतां नाम तर्हि तद्भीत्यैव चतुर्दशी कृत्यं त्रयोदश्मामपीति उच्छिनत्वेपि लोकभी तेरुभयत्रापि तौल्यादिति गाथार्थः || ४ || यदि ऐसा कहे कि - 'लोकव्यवहारकी नष्टताके भय से सातममें किया जाता हुआ कार्य दोषके लिये नहीं है." तो बहोत अच्छा. 'ऐसा है' तो लोकव्यवद्दारकी भीतीही चतुर्दशीका कार्य त्रयोदशी में भी कर ! 'क्योंकि लोक भीती तो दोनो जगह एकसी ही होनेसें. इस मुताबिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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