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________________ (३२२) तिथि अपने आपसे ही 'मानी हुइ उदयतिथिसें' पूर्वतिथित्वपने ही रह गई. दुसरी बात यहभी है कि-किसीभी कोशकारने "औदयिकी' शब्दका अर्थ 'दूसरी' ऐमा नहीं किया है. इसके अलावा वादीने चर्चा के प्रारंभमें कहाथा कि-'पर्वतिथिकी क्षयवृद्धि नहीं मानना. ऐसी मान्यता जैनशासनमें करीब ४०-५० वर्षसे प्रविष्ट हुई है. इस बाबतमें भी वादीने अपनी ओर से कोई पुरावा पेश नहीं किया. और श्रीदेवमूरिजीका पट्टक तथा श्रीदीपविजयजीका पत्र देखते हुए व उपरोक्त पाठोंका विचार करने से मालूम होता है कि वादी इन्द्रमलजीका पक्ष नया व शास्त्र विरुद्ध है, और वकील मोहनलालजीका पक्ष पूराना व शास्त्र. सम्मत मालूम होता है. ___अब पालीताणेमें आचार्यमाहाराज श्रीसागरानंदसूरीश्वरजी माहाराज तथा मुनि श्रीहंससागरजी व. उपाध्याय श्रीजंबुविजयजी इन्होके इसी तिथिचर्चा संबंध में जो पत्रव्यवहार हुआथा उसपर भी विचार दर्शाने के लिये वादी प्रतिवादी दोनोंने मेरे उपर ही रखा हुआ होनेसे. मैंने उन पत्रोंको कलरोज सहस्रमलजीके मुहसे मुनेथे. बादमें उन पत्रों (नकलों) को सहस्रमलजीसे लेकर मैंने अच्छी तरहा पढ़े. और अब उन पत्रों पर अपना अभिप्राय जाहिर करता हूं कि उपाध्याय श्री विजयजीकी मान्यता नई व शास्त्रविरुद्ध है, और आचार्यमाहाराज श्रीसागरानंद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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