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________________ (११) तथापि स एव प्रमाणं, न पुनरूदयास्तमयं यावत् प्रयासान्वितोऽपि प्राचीनदिनो निगद्यते लिख्यते च पुस्तकप्रान्ते इति, यदि च स्वमत्यातिथेरवयवन्युनाधिककल्पनां करिष्यसितदाऽऽजन्मव्याकुलितचेता भविष्यसीति तु स्वयमेव किं नालोचयसि ? एवं क्षीणतिथापि, कार्यद्वयमद्यकृतवानहमित्यादयो दृष्टान्ताः स्वयमूद्या इति गाथार्थः ॥ १८॥ लोकमें भी जो सर्व कार्य ग्रन्थ वगैरह देखने में आता है वह जिसदिन पूर्ण होता है (चेव एवकार अर्थमें है) वही दिन प्रमाण है, 'जैसे अमुक वर्ष संबंधि अमुक मास उस संबंधि अमुक दिन उस रोज यह ग्रंथ बनाया अगर लिखा! जो कि उस दिन श्लोकमात्र ही बनाया हो अगर लिखा हो तब भी वही दिन प्रमाण होता है किंतु पुस्तक के अंतमें (पहले के दिनोंमें) सुबहसे शाम तक प्रयास किये हुए दिन न तो कहे जाते हैं और न लिखे जाते हैं. ऐसा होने परभी तूं आपमतिसें तिथिके अवयवोंके न्युनाधिकपनेकी कल्पनाओंको करेगा तो आजन्म व्याकुलित चित्तवाला रहेगा, इसको तूं स्वयं ही क्यों नहीं विचारता है ? इसी तरहसे क्षीणतिथिमेभी, (समझना) आज मैं ने दो कार्य किये वगैरह दृष्टांत स्वयं ही जानना. इन्द्र०-देखा साहब! क्षीणतिथिमें दो काम करनेका आया है न? की०-वाहजी! वाह !! आप बिनाही समझे एकदम क्यों उछलते हो? शास्त्रकार खरतरको कहते हैं कि-पर्वतिथिकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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