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(१५१) ऐसा विचार करही रहेथे कि, किसी ब्राह्मणने आकर "जय सीताराम!" का आवाज किया! बस आवाज सुनते ही ब्राह्मणको ठाकुरसाहबने बुलवाकर पुछा कि-तूं कुछ आनता है या नहीं? ब्राह्मण बोला माहाराज ! हेग जाणुं हुं ! तब ठाकुरसाहब बोलेकी राज्यके लिये जाप जपनेके है, तुम जप सोंगे क्या ? ब्राह्मण बोला कि जपुंगा. बाद ठाकुरने मोदीसे कहदिया कि इस ब्राह्मणको लोट-सकर-धीरत-दाल-चावल जो कुछ चाहिये सो देना! बस फिर तो देरी ही क्या थी? ब्रह्मदेवने तो लड्डु पर ही हाथ फिरानेका काम रखा ! और माला हाथमें लेकर बैठके विचार करने लगा की अब क्या करना चाहिये ? मेरे लिये काणा कका तो भंस जैसा है ! परंतु राजाजीने तो जाप जपनेको कहा है तो अब जाप जपना चाहिये. ऐसा शोचकर माला फिराने लगा और बोलने लगा "राजाजीरा जाप जपुं, राजाजीरा जाप जपुं" इस तरह काम चलने लगा. इतने में कोई दूसरा द्विज आया. ठाकुरसाहबने उससेभी वहां बिठाया. उसने भी लडुओंपर खूब ही हाथ फिराया, बादमें एक बैठा हुआथा वहां दूसराभी आया और शोचने लगा कि मैंतो कुछ भी नहीं जानता हूं और अब यहांपर क्या जाप गिर्नु ? इतनेमें विचार आया कि यह पहलेवाला ब्राह्मण क्या जाप गिनता है, इससे तो पुछलिया जाय ? ऐसा शोचकर इसने भी उस ब्राह्मणसे पुछा कि-आप क्या जाप जपते है ? तब वह बोला कि "राजाजीरा जाप जपुं" यह सूनकर ब्रामण शोचने लगा
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