SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह सिद्ध किया है कि क्षय हो, तब पूर्वतिथिहीको क्षयतिथिपने ग्रहण करना और वृद्धि हो तब दूसरी तिथिको तिथिपने ग्रहण करना. इन्द्र०-इस गाथासे यह सिद्ध हुआ कि विद्यमान और वृद्धिके वक्त उदयसहित समाप्ति व, क्षयके वक्त समाप्तिवाली तिथिको ही तिथिपने लेना. वकी०-बेशक ऐसा ही है. इन्द्र०-आपको कबूल है न ? वकी०-हां अवश्यमेव. इन्द्र०-अच्छा तो कहिये कि उदययुक्त समाप्तिवाली तो सप्तमी ही है, उस सप्तमीको सप्तमी नहीं कहते अष्टमी कहना यहतो सरासर अन्याय ही है न ? अब रही आराधना, सो तो अयतिथिको हो ही जायगा. वकी०-क्षयके वक्त उदययुक्त समाप्ति नहीं किंतु सिर्फ समाप्तिवाली ही तिथि मानना फरमाया है ऐसा समझते हुए आप अपने हठको नहीं छोड़ते है. यहभी एक आश्चर्य है ? इन्द्र०-वस्तुस्थिति समझनेके लिये हठभी करना पड़ता है, परंतु सप्तमी तो उदय और समाप्ति दोनोही करके युक्तः है, ऐसी उदयसमाप्तिवाली तिथिको कैसे छोड़ देना चाहिये ? वकी-तिथिसे आराधना है या आराधनासे तिथि है. इन्द्र०-तिथिसे ही आराधना है. वकी०-बस तो कहिये कि सप्तमीके स्थानपर अष्टमीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy