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________________ (१०७) स्वाध्य संभवात्" ' त्रयोदशी' ऐसे नामका भी असंभव होनेसें. आगे चलकर भी तश्वतरंगिणीकार वादिको कहतें है कि"परावृत्त्याभिमन्यते" आठमको तो फीराकर ( याने सातमको आठम बना करके ) मानता है, और चतुर्दशीका तो नामभी सहन नहीं करता है ! इससे भी यह साबीत हुआ कि - पर्वतिथिके क्षयवक्त पूर्वअपर्वतिथिहीको क्षयरूप मानना और उसका (पूर्व अपर्व तिथिका ) तो नाम भी नहीं लेना ! अब आपही कहिये कि- " क्षये पूर्वातिथिः कार्या " इसका अर्थ, जो आपके गुरूजीने लिखा है कि- "पूर्व तिथिमां आराधवानुं जणावे छे” यह लिखान अल्पांश भी सत्य है ? इन्द्र० - विभक्ति सह अर्थका विचार करते हुए तो योग्य मालूम नहीं होता, परंतु सुवर्ण रत्नमय कुंडलमें सुवर्ण और रत्नका ज्ञान क्या मिथ्याज्ञान है ? वकी० - सुवर्ण रत्नका ज्ञान खोटा नहीं है परंतु व्यवहा रतो रत्नके नामसेंही होता है न ? कहिये ? आपकी उंगली में यह अंगुठी किसकी है? ऐसा किसीने पूछा तो आप क्या कहेंगे. इन्द्र० - पन्ने की. वकी० - घाटतो सोने का है पन्ना तो अंदर जड़ा हुआ है तोभी आप सोने पंनेकी नहीं बोलते हुए 'पन्ने की है' ऐसा क्यों बोलते हो ? इसमें आपको मृषावाद नहीं लगा ? इन्द्र० - नहीं. क्योंकि व्यवहार ऐसाही है. वकी० - ऐसे ही आप इन जुहारमलजीसें पूछीये कि आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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