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________________ (७७) क्षयतिथि पने स्वीकारना ! अच्छा, आगे पढिये. इन्द्र० - ( पढ़ते है ) " अथानन्तर्यस्थितासु द्वित्र्यादिकल्याणतिथिषु किमेवमेवाङ्गीक्रियते ? इति चेत्, अर्थ:- अब अंतर रहीत ऐसी दो तीन आदि कल्याणकवाली तिथियों के अंदर क्या ऐसा ही मंजूर करेंगे ? ऐसा जो तूं कहता हो तो “अहो वैदग्ध्यं भवतः, यतः स्वविनाशाय स्वशस्त्रमुत्ते जी कृत्यस्मत् करकुशेशये न्यस्यते, यतो ह्यस्माकमग्रेतन कल्याणक तिथिपाते प्राचीन कल्याणकतिथौ द्वयोरपि विद्यमानत्वादिष्टापतिरेवोत्तरं " अर्थ:- अहो तुम्हारा पांडित्यपना ! जिस करके अपने नाशके लिये अपना शस्त्र उत्तेजीत ( तीक्षण) करके हमारे कर कमलमें रखते हो. कारण कि अगली तिथि क्षय होते हुए पहली तिथि में दोनों की विद्यमानता होनेसें तेने दी हुई आपत्ति हमकों तो लाभदायक ही है. यही हमारा उत्तर है ! " भवता तु प्राचीनाया उत्तरस्या तिथिपाते उभयत्राप्याकाशमेवावलो कनीयमुभयपाशादिति,” अर्थ:- तुम्हारे तो पूर्व या उत्तर दोनो तिथियोंके क्षयमें आकाशकी तरफ ही देखनेका रहेगा; उभय तरफसें गलपाश होनेसें. " ननु कथं तर्ह्यनंतरदिने भविष्यद्वर्षकल्याणतिथिदिने च प्रथकतपः समाचर्यते ? इति चेत्, अर्थ :- 'शास्त्रकार वादीको कहते है कि' 'आप कल्याणक तिथिका तप' अनंतर दिनमें और आते हुवे वर्षमें होनेवाली कल्याणकतिथि दिन में जुदा कैसे करते हो ? ऐसी जो तूं शंका करता हो तो (सुन) " उच्यते, कल्याणकाराधको हि प्रायस्तपो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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