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________________ [७४] महामानव जो बुद्धिपूर्वक सन्मार्ग की दीक्षा ग्रहण करता है वह उस मार्ग की परम्परा में कूड़ा-करकट जैसा जो कुछ जमा हो गया होता है, उसे दूर करने का विवेक भी दिखला सकता है।" [पृ. ३९५] मुक्ति किसे कहते हैं ? मुक्ति का विषय भी साधारण जन के लिए बड़ा जटिल बन गया है। यह जानते हुए भी कि " भूखे भजन न होई गोपाला" भूखों को भजन करने के लिये कहा जाता है कि भविष्य जन्म में तो उन्हें फिर भूखा न रहना पड़े। यह तो गोद का छोड़ पेट की आशा रखने जैसी ही बात है । मुनिजी की दी हुई मुक्ति की परिभाषा इसलिए परम विचारणीय है: "मुक्ति तो इसी जीवन में मिलनेवाला आत्मा का परमो. स्कर्ष है । मरने के बाद जो मुक्ति की प्राप्ति मानी जाती है वह तो इस जीवन्त देह में सिद्ध की गई मुक्ति की पुनरुक्ति मात्र है। सत्यमय जीवन से प्राप्त होने ग़ली ऐहिक मुक्ति है-अखण्ड मानन्द का अन्तःस्रोत, जो सदा और सतत वहता रहता है, न अमीरी से सूखने पाता है और न गरीबी से।" [पृ. ४१०] "बुरी आदत, बुरा झुकाव, बुरा विचार, रोग, निर्बलता, मीरुता, आलस, जड़ता, हृदय की कठोरता, विलासिता, कार्पण्य, अभिमान, लोम-लालच, दम्म, बहम, गुलामी आदि विकारों से मुक होना सर्वप्रथम आवश्यक है। यह प्राथमिक मुक्ति की साधना है । शरीर, हृदय, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034938
Book TitleMaha Manav Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherTapagaccha Jain Sangh
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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