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अपकायिक जीव मर जाते हैं और उन जीवों का केवल शरीर रह जाता है, वह अच्चित्त अप्काय कहा जाता है, अन्यथा सब जल सजीव है ।
३ तेजस्काय - अर्थात् अग्नि । अग्नि भी असंख्य जीवों के शरीर का पिण्ड है, जब अग्नि के जीव मर जाते हैं तब उन जीवों के शरीर का पिण्ड कोयले, भस्म, आदि रूप में रह जाता है ।
४ वायुकाय - पवन - वायु भी असंख्य जीवों के शरीर का पिण्ड है । वायु के जीवों का शरीर आंखों से दिखाई नहीं देता एवं पंखे आदि से जो वायु उत्पन्न होती है उसमें जीव नहीं होते क्यों कि वह असली - वास्तविक पवन नहीं है, परन्तु पंखे आदि की प्रेरणा से पुद्गलों में वायु के समान परिणाम होने से वायु प्रतीत होती है ।
५ वनस्पतिकाय — कन्द, मूल, काई आदि व वनस्पतिकाय में अनन्त जीव होते हैं और वृक्षादि वनस्पति में असंख्य जीव होते हैं । जिस वनस्पति का अग्नि आदि से सबन्ध होता है एवं जो वनस्पति सूख जाती है, वह वनस्पति के जीवों का शरीर होता है, उसमें वनस्पति के जीव नहीं होते । जैसे- सूखी लकड़ी आदि ।
पूर्वोक्त पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति इन पांचों कायों में केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है, इस लिए उक्त पांचों कार्यों के जीव एकेन्द्रिय कहलाते है । इनका प्रज्ञापनासूत्र में वर्णित है और इन प्रमाण आचारांग सूत्र की नियुक्ति में हैं ।
विस्तार से स्वरूप
पांचों
जीव हैं, इसके
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