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तीत शिलालेख नष्ट भ्रष्ट कर दिये । इतना कुछ होने पर भी जो थोड़ा बहुत ऐतिहासिक मसाला बचा था वह भी ऐसे संकीर्ण हृदय वालों के अधिकार में रहा कि उन्होंने उस प्राचीन साहित्य को किसी दूरदर्शी पंडित को बतलाने में महापाप समझ उसकी अपेक्षा भंडारों में सड़ाना ही श्रेष्ठ समझा । तथा मन्दिर मूर्तियों के स्मर काम करवाने में उन प्राचीन शिलालेखों की परवाह तक न रक्खी। यही कारण है कि आज हम हमारे इतिहास लिखने में दो क़दम पीछे खड़े हैं।
फिर भी यह सौभाग्य का विषय है कि पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों एवं पुरातत्त्वज्ञों के अथाह परिश्रम एवं शोध खोज से
आज जो थोड़ी बहुत ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हुई है उससे हम अपने देश की प्राचीन सभ्यता, धर्म भावना, शिल्प सौन्दर्य, सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिमत्ता के विषय में थोड़ा बहुत हाल जान सकते हैं। इतना ही क्यों बल्कि उपलब्ध सामग्री को यदि क्रमवार एकत्रित कर इतिहास लिखा जाय तो उसमें भी । अच्छी सफलता मिल सकती है।
यद्यपि जैन धर्म के इतिहास के लिये उक्त अनेकानेक कटिनाइयों का सामना करना पड़ता है पर उपलब्ध साधनों से इतना तो कहा जा सकता है कि भगवान महावीर से सम्राट् संप्रति एवं महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के समय जैनधर्म राष्ट्रधर्म कहा जाता था और भारत के प्रत्येक प्रान्त में जैन धर्म का उस समय प्रचुरता से प्रचार था। इतना ही क्यों पर भारत के बाहिर पाश्चात्य प्रदेशों में भी जैनधर्म का मण्डा फहरा रहा था। सम्राट् श्रोणिक (बिंबसार) ने पाश्चात्य प्रदेशों में अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com