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२१-कच्छ भद्रेश्वर के मन्दिर की प्रतिष्ठा भगवान सौधर्माचार्य के कर-कमलों से वीरात् २३ वर्ष में हुई । जिसका जीर्णोद्धार जघडूशाह ने करवाया था। उसका शिलालेख आज भी प्रत्यक्ष साक्षी है।
२.-पार्श्वनाथ पट्टावलि में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि आचार्य हरिदत्तसूरि ने वेदान्तिक आचार्य लोहित्य को जैन दीक्षा दे; क्रमशः उनको आचार्य बना कर महाराष्ट्र प्रांत में भेजा
और उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ हिंसा बन्द करवा कर, कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवा जैन धर्म का प्रचार किया। यही कारण है कि दुष्काल के समय आचार्य भद्रबाहु ने अपने शिष्यों को लेकर • महाराष्ट्र प्रान्त में जा, उन मन्दिरों की यात्रा की थी।
२३-आचार्य स्वयं प्रभसूरि ने श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में जैन मन्दिरों को प्रतिष्ठा करवाई थी, इत्यादि ।
२४--अर्जुनपुरी ( गांगाली) में '३०० की प्राचीन सफ़ेद सोना की र्ति थी।
देखो किरण आठवीं। अन्त में मैं इतना हो कह कर मेरे इस लेख को यहीं समाप्त कर देता हूँ कि अब जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रचीनता के विषय में सभ्य समाज को किसी प्रकार से शंका एवं सन्देह करने को स्थान नहीं रहा है । क्योंकि जब पांच लाख वर्षों की प्राचीन मूर्तिएँ शिलालेख के साथ मिलती हैं और इसी अर्से में तीर्थङ्कर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, और महावीर हुए हैं तथा उनमें से किसी ने मूर्तिपूजा का निषेध नहीं किया बल्कि भगवान महावीर के बाद २००० वर्षों में सैकड़ों धर्म धुरन्धर बड़े-बड़े विद्वान् 'बहुश्रुत'
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