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________________ ( ८१ ) इसी दलील के आधार पर तेरह-पन्थी लोग साधु के सिवाय और किसी को दिये गये दान में पुण्य नहीं बताते हैं। वे कहते हैं कि जहाँ निर्जरा नहीं वहाँ पुण्य नहीं, और साधु के सिवाय जो दान दिया जाता है, उससे निर्जरा नहीं होती, इसलिए पुण्य भी नहीं होता। परन्तु उन लोगों का यह सिद्धान्त बिल्कुल झूठाहै। 'श्री दशवकालिक सूत्र' के पाँचवें अध्ययन में जो जो माहार-पानी साधु के लिए प्रासुक होने पर भी अकल्पनीक बताया है, वहाँ ऐसा कहा है कि 'पुणट्ठापगडं इम' अर्थात पुण्य के लिए बनाया हुआ यह पदार्थ मुझे नहीं कल्पता है, ऐसा साधु कहे । तब विचारने की बात है कि वह पुण्य के लिए बना हुमा साधु तो लेते नहीं, भगवान ने ऐसा आहार-पानी लेने की मनाई की है, तब वह पुण्यार्थ किसके लिए हुआ ? इससे स्पष्ट सिद्ध है कि पुण्य के लिए बनाया हुआ उसी को कहते हैं जो रंक, भिखारी, दुखी, पशु-पक्षी आदि के लिए बनाया गया हो। इसमें निर्जरा का कोई स्थान नहीं है। ऐसे दीन हीन अपंग अनाश्रितों को देने में पुण्य ही होता है। इसलिए शास्त्रकार ने कहा है कि 'पुणट्ठा' इस पर से पुण्य, साधु के सिवाय देने से भी होता है गौर वह जीव को ऊंचा उठाने में कारणभूत होता है । 'श्री स्थानांग सूत्र' के नववें स्थान में नव प्रकार का पुण्य कहा है। वहाँ मूल-पाठ में "निर्वध, सावद्य या निर्जरा के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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