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________________ ( ७२ ) रहा। ऐसी दशा में साधु सुपात्र और श्रावक कुपात्र कैसे हो। सकता है ? तेरह-पन्थी साधु दूसरे सत्य व्रत को भी शास्त्र पाठ का विफ रीत अर्थ करके तोड़ते हैं। यद्यपि इस विषयक सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं, लेकिन विषय बढ़ जावेगा और अभी इसमें आगे भी कुछ आवेगा ही, इसलिए यहाँ केवल एक ही उदाहरण देकर सन्तोष करते हैं। उपासक दशांग सूत्र में पन्द्रह कर्मादान बताकर श्रावकों के लिए कहा है कि ये कर्मादान ( ब्यापार ) श्रावकों को जानने चाहिए, परन्तु इनका आचरण न करना चाहिये। उन पन्द्रह कर्मादान में पन्द्रहवाँ कर्मादान 'असईजण पोसणया' है। इसका बर्थ है-असई यानी असती, जण यानी लोग, पोसणया यानी पोषण करना। अर्थात् असती (दुराचारिणी ) स्त्रियों का पोषण करने का व्यापार करना । जैसा कि आजकल बम्बई आदि में होता है, कि कुल्टाओं को रखकर, उनके द्वारा भाजीविका चलाते हैं। श्रावकों के लिए यह कर्म निषिद्ध है। ___ असई का अर्थ असंयति कदापि नहीं होता। '' 'सई' का निषेधक है। मूल शब्द 'सई' है। 'सई शब्द साधु के अर्थ में न तो है, न कहीं आया ही है। सई शब्द का अर्थ सती होता है सो 'अ' से सतीत्व का निषेध रूप । असतो यानी कुल्टा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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