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________________ ( ६९ ) श्रावक उन सब का पूर्णतया पालन करता है। वह श्रावक पद का अराधक है, ऐसा सूत्र में कहा है। वह मर्यादा के विरुद्ध कोई मांचरण नहीं करता। लेकिन साधु तो मर्यादा के विरुद्ध भाचरण करते हैं, क्योंकि परिप्रह में शरीर को भी गणना है। साधुओं को शरीर से ममत्व है या नहीं ? यदि नहीं, तो नित्य घर घर भोजन के लिए क्यों भटकते हैं ? शीत, ताप और वर्षा से बचने का प्रयत्न क्यों करते हैं ? पैर में एक छोटासा कॉटा भी लग जाता है, तो निकालने क्यों बैठते हैं ? रोग होने पर वैद्य, डाक्टर को शरण क्यों लेते हैं ? अर्श होने पर ऑप्रेशन क्यों करने देते हैं ? यदि कोई ऑप्रेशन करने लगे, तो उसको रोक * तेरह-पन्थी, 'भ्रम-विध्वंसन' पृष्ठ २६८ में कहते हैं-'जे अर्श छेदे ते वैद्य ने क्रिया लागे, अने जे साधु नी अर्श छेदाणी, तेहने क्रिया न लागे इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं'तिवारे कोई कहे, ए वैद्य ने क्रिया कही ते पुण्य नी क्रिया के, पिण पाप नी क्रिया नहीं। एहवो ऊँधो अर्थ करे, तेहने उत्तर-इहाँ कहो, अर्श छेदे ते वैद्य ने क्रिया लागे, पिण धर्मान्तराय साधु रे पड़ी। धर्मान्तराय ते धर्म में विघ्न पड्यो, तो जे साधु रे धर्मान्तराय पाडे, तेहने शुभ क्रिया किम हुवे ? ए धर्मान्तराय पाड्याँ तो पुण्य बँधे नहीं। धर्मान्तराय पाड्याँ तो पाप नी क्रिया लागे छ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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