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________________ ( ३६ ) दूजो सुत जग दीपतो यश संसार मझार । करडी जागाँ रो करज उतारे तिण बार ।। कहो केहने वरजे पिता दोय पुत्र में देख । वर्जे कर्ज करे तसु के ऋण मेटते पेख ॥ समझ नर विरला । कर्ज माथे सुत अधिक करंतो बार बार पिता बरंजतो रे । करडी जागाँ रा माथे काँय कीजे प्रत्यक्ष दुख पामीजे रे ।। अधिक माथा रो कर्ज उतारे जनक तास नहीं वारे रे। . पिता समान साधु पिछाणो रजपूत बकरो बे मुत मानो रे ॥ कर्मरूप ऋण माथे कुण करतो आगला कर्म कुण अपहरतो रे । कर्मऋण रजपूत माथे करे थे बकरा संचित कर्म भोगवे छे रे ॥ साधु रजपूत ने वर्षे सुहाय कर्म करज करे काय रे । कर्म बंध्यां घणा गोता खासी परभव में दुःख पासी रे ॥ सरवर पणे तिण ने समझायो । . तिण रो तिरणो वंछयो मुनिरायो रे । बकरा जिवावण नहीं दे उपदेश रूडी ओलख बुद्धिवन्त रेसरे ॥" ('भिक्षुयश रसायन') Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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