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________________ ( १७३ ) सभा के मन्त्री ने छपवा कर प्रकाशित किया हुला, इस सभा का संक्षिप्त इतिहास अपने को कतिपय अंशों में उपयोगी सिद्ध होगा। श्रीयुत् चोपड़ाजी का गुजराती भाषा पर, जैसा चाहिये वैसा काबु नहीं है, इसलिये वे क्या कहना चाहते है वह कहीं २ पर बहुत अस्पष्ट हो रहा है। लगभग ८० पृष्ठ को पुस्तिका में ६ पृष्ठ भरा, इतना तो शुद्धि पत्रक है। श्री वकील चोपड़ाजी का आशय "तेरा-पन्थी मत के सिद्धान्तों का रहस्य न समझ सकने के कारण बहुत से लोग दूसरों को निन्दा करने, तथा भोले भाईयों को बहकाने के लिये, गम्भीर दार्शनिक तत्व को उलटा कर निरर्थक कागज स्याही और समय का दुरुपयोग करते है, वह रोकने का है। रा-पन्थी अपने को श्वेताम्बर जैन धर्म की शार्खा के अनु. यायो कहलाते हैं, इनके विषय में जो कुछ गैर समझ होती हो, उनके सिद्धान्तों का उलटा प्रचार होता हो तो उसका प्रतिकार करना यह जैन धर्म के प्रत्येक अनुयायी का प्रथम फर्ज है। तेरह-पन्थो की निन्दा अथवा बुराई दिखाना एक तरह जैन धर्म की हो अवहेलना है, कारण कि जो शाखा प्रशाखा के भेद को नहीं जानते, वे तेरह-पन्थ को ही जैन धर्म समझ कर जैन दर्शन की अवहेलना करते हैं। वकील छोगमजी चोपड़ा कहते हैं कि तेरा-पन्य विरुद्ध, कितनेक ऐसी झूठी बातें फैलाते हैं, कि 'यह मत दया दान रहित २३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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