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पन्थी लोग ऐसा मानते नहीं है। अतः केशी श्रमण ने राजा प्रदेशी के दानशाला विषयक विचार का समर्थन नहीं किया था, इसलिए राजा प्रदेशी का वह कार्य पाप ही था, ऐसी तेरह-पन्थियों की दील लोगों को केवल भ्रम में डालने के लिए ही है। अपना उद्देश्य पूरा करने के वास्ते, व्यर्थ की दलील है । इसमें तथ्य बिल्कुल नहीं है ।
साधु
सारांश यह कि के सिवाय अन्य लोगों को दान देना पाप नहीं है । यह बात तीर्थङ्करों का दान देना भी सिद्ध करता है, और ऊपर शास्त्र के जो दो प्रमाण दिये गये हैं, उनसे भी सिद्ध है ।
तेरह-पन्थियों को एक दलील और है। वे अपनी 'श्रनुकम्पा' की बारहवीं ढाल में कहते हैं कि यदि सोनैया, धन-धान्य आदि असंयति लोगों को देने में, तथा मरते हुए असंयति जीवों को बचाने में धर्म होता, तो भगवान महावीर की प्रथम वाणी निष्फल क्यों जाती ? देवता लोग लोगों को सोनैया, धन-धान्य, रत्न आदि देकर, तथा समुद्र में मरती हुई मछलियों को बचाकर भगवान महावीर की वाणी सफल करते । इस सारी ढाल में उन्होंने देवताओं का ही उदाहरण लिया है। उनका थोड़ासा कथन उदाहरण के तौर पर यहाँ दिया जाता है
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