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________________ ( १०५ ) भी तरह की बाधा नहीं आती थी। क्योंकि केशी श्रमण के सामने राजा प्रदेशी, किसी को कुछ दे नहीं रहा था, इसलिएं केशी श्रमण उपदेश में राजा प्रदेशी को यह कह सकते थे, कि 'तेरा दानशाला खोलकर सबको दान देने का विचार पापपूर्ण है ।' यदि साधुओं के सिवाय अन्य लोगों को दान देना पाप है, और फिर भी केशी श्रमण ने इस पाप कार्य की पहचान राजा प्रदेशी को नहीं कराई, इस पाप का फल राजा प्रदेशी को नहीं बताया, तो उस दशा में केशी श्रमण अपने कर्तव्य से पतित माने जावेंगे। क्योंकि तेरह - पन्थी स्वयं कहते हैं कि-'यदि उपदेश में असंयति को दान देने का कटु फल बताने से अन्तराय लगती हो, तो मिथ्या दृष्टि व्यक्ति सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? और १ धर्म अधर्म की पहिचान कैसे हो सकती है ? धर्म अधर्म की पहचान तो साधु के बताने से हो जानी जाती है।' इसके अनुसार केशी श्रमण का कर्तव्य था कि राजा प्रदेशी दानशाला खोलकर सबको दान देने का मिध्यात्व और पाप पूर्ण जो कार्य करना चाहता था और अन्ततः शास्त्र के पाठानुसार जिस कार्य को राजा प्रदेशी ने शीघ्र कर ही डाला — दानशाळा खुलवाई हीउस कार्य से राजा प्रदेशी को रोकते, उस कार्य का कटु फल बताते, तथा राजा प्रदेशी को धर्म धर्म की पहचान कराते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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