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( २४ ) ॥अथ दादाजी श्रीहीरविजयजी स्तवन ॥ सोभागी श्रीगुरु हीरविजय सूरीन्द्र, मन मोहन श्रीगुरु हीर०। मैं सेवक सांनिध्यकारी, श्रीगुरु पूरै मनोरथ वृन्द सो० ॥१॥ दोलत दायक श्रीगरु मेरो, दादा हुँचरणनो दास। श्रीगरुनां बिरुद छे भारी, धरिस ही मन पास सो० ॥२॥ तो सेव्यां संकट टलेंजी, मिले मुजने मोहन वेल । दादा ! तुम चरणां सुपसाय, पामै हरखनी रेल सो० ॥ ३॥ तपगच्छ अंबर दीनकर जैसो दादाहीरसूरीन्द्र भाह । अकबर बादकारीन जीते, असुर सहु जिन्द सो० ॥४॥ परगट दादो देवताजी, परचा पूरै सूरीन्द । वाचक जस इम वीनवैजी, संघसकल पाणन्द सो० ॥५॥
स्तवन-चाल रेखता श्रीगुरु हीरदेवके दर्शन, दिल मुज होत हे परशन् । होत आनन्द धनमेरे, सम्पत्ति मिलत बहुतेरे अं'. ॥१॥ गुरु ! तुम ध्यान दिल्लधारू, दुरबुद्धमती दूरवारू। श्रीगरु चरणकी सेवा, सेवक कु दीजिये मेवा श्री.॥२॥ दादा ! दरसण मोहि दीजै, दादा तुम सो हिला कीजै। जे कोई समरण जोपावै,तोश्रचिन्ती लक्ष्मी घरावै श्री.n. दादा ! तुम समरण करती, बाट. घाटमें सुखै बहन्ता। भीत उपद्रव सह जावै, श्रीगह ध्यान दिल ध्यांवै श्री. ॥ ४॥ दादा ! हह अरज दिलधारो, सेवकके कार्य सहु सारो।
भीवीहीरसुरी देवा !, पावो सुजश तुम गुरुसेवा श्री. ॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com